आखिर क्यों हमें बुरा बहुत जल्दी लगने लगा है, कहीं हमारा अपमान प्रायोजित तो नहीं?

Pratyush

इस लेख की शुरुआत मैं ‘हमसे’ करना चाहूंगा. हम जो समाज की एक इकाई हैं. देश के हर छोटे-बड़े मुद्दे पर एक सोच हैं, एक नज़रिया हैं. हम, जो कोई व्यक्ति विशेष नहीं, बल्कि समाज का हर वो व्यक्ति है जो एक राय रखता है, जिसका प्रभाव दूसरों पर पड़ता है. मैं ऐसे ही हम के दो रूपों की बात कर रहा हूं.

आज के वक्त में गाली देना हमारी और आपकी जीवन शैली का एक भाग है. हम अपने दोस्तों में हर तरह की बात कर लेते हैं, हर चीज़ पर चुटकी ले लेते हैं, फिर चाहे वो धर्म हो या सेक्स. आपस में कोई गलती हो जाए तो हम आग बबूला नहीं हो जाते, बल्कि बात टाल देते हैं. पर अगर गलती से बस या मेट्रो में किसी से धक्का लग जाए तो हम बुरा मान जाते हैं. कोई सेलिब्रिटी अगर दूसरे धर्म पर टिप्पणी कर देता है तो हमें बहुत बुरा लगता है. क्या इसे हम लोगों का डबल स्टैंडर्ड न मानें?

RajnikantVsCid

चलिए आपसे एक छोटा सा सवाल है? क्या अपने किसी दोस्त के मुंह से गाली सुन कर आपको बुरा लगता है? ज़्यादातर लोगों का जवाब होगा, नहीं. पर यही गाली जब आप फिल्म में सुन लेते हैं तो संस्कृति का अपमान हो जाता है, जिसके चलते फिल्म के उस सीन को हटाना पड़ता है. क्या इसे हम ये न मानें कि हम खुद से अपमानित हो रहे हैं? अगर किसी सच्ची घटना पर आधारित फिल्म में हम गाली सुन रहे हैं तो वो महज एक आइना है, सच्चाई है. अगर फिल्म में वो नहीं दिखाई जा रही है तो कहीं न कहीं हम कुछ अधूरा देख रहे हैं.

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हम बुरा मानते हैं छोटी-छोटी सी बात पर, हम धक्का लग जाने पर बुरा मानते हैं. दूसरी तरफ़ हम किसी अभिनेता का बयान सुन कर उसे ब्वॉयकॉट कर देते हैं, किसी फिल्म के डायलॉग को खुद पर ले लेते हैं. हम शायद कुछ ज़्यादा ही अपमानित होने लगे हैं.

हम अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात करते हैं और अगर सोशल मीडिया पर अपने पसंदीदा नेता के खिलाफ़ कुछ पढ़ लें तो #Shame के साथ उसका विरोध करते हैं. हमें देखना है कि हमारे बुरा मानने का स्तर कहां जा चुका है?

कुछ समय पहले कितना कठिन था अपमानित होना, अब सोचिए कितना आसान हो गया है. बस अपना फेसबुक, ट्विटर, Whatsapp या कोई न्यूज़ चैनल चलाना है और अपमानित लोगों की जमात में शामिल हो जाना है! हमें ये देखना है कि हम अपने लिए बुरा मान रहे हैं, या उस सोच के लिए जो आपके ऊपर थोपी गई है.

हम उस जनता की तरह है जो ज़मीन पर लिखी ‘6’ इस संख्या को देख कर कह रही है कि ये छह है, बल्कि अगर दूसरी तरफ़ से देखा जाए तो ये नौ भी है. ये वो जनता है जो कहती कि हम ही सही हैं, बाकी सब गलत. हम अपने हिसाब से हंसना चाहते हैं.

हमने छीन ली है कलाकारों की आज़ादी!

एक लेखक या पेंटर जब कलम या ब्रुश उठाता है, तो वो पन्ने पर अपने भाव उतारना चाहता है, वो आज़ादी से कुछ लिखना चाहता है. पर लिखते वक्त वो देखता है कि सामाजिक कार्यकर्ताओं ने उसका हाथ पकड़ा है, धार्मिक कार्यकर्ता उसके सिर पर बंदूक लगाए बैठा है. और तो और, राजनैतिक कार्यकर्ता ने तो पन्ने में ही आग लगा दी क्योंकि वो उन सबकी भावनाओं को ठेस पहुंचा रहा है.

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क्या हमारा अपमान प्रायोजित है?

पिछले साल हमने एक नया शब्द सीखा ‘असहिष्णुता’. इस शब्द के शिकार वो लोग भी थे, जिनकी ज़ुबान भी इस शब्द को बोलने में लड़खड़ा जाती है. पर हमारी आदत है फैशन के साथ चलना. चूंकि उस वक्त इसका फैशन था, लोगों ने इसे अपना लिया. अब हर कोई ऐसी बातों का भी बुरा मान रहा था, जिसकी सालों से उसे आदत है. हम खुद से भले ही कई बातों को नज़रअंदाज़ कर दें, पर Whatsapp का एक मैसेज हमारी सोच को नियंत्रित कर लेता है. 

अच्छा खासा इंसान पल में हिन्दू-मुस्लिम बन जाता है और पल में हिन्दुस्तानी. प्रायोजित मैने इसलिए लिखा कि ऐसी चीज़ें धर्म, देशभक्ति, विचार, सोच का प्रचार करती है और हम आंखों पर पट्टी बांध कर उसे मानते हैं. दूसरे धर्म की हम धज्जियां उड़ा देते हैं और खुद को सर्वश्रेष्ठ घोषित करने में जुटे रहते हैं.

हमे तिल नहीं, ताड़ ज़्यादा पसंद आने लगा है!

हिन्दू हो तो ये मेसेज दस लोगों को भेजो! सच्चे देशभक्त हो तो इस मेसेज को सारे ग्रुप में भेजो. इसकी फिल्म न देखो, ये हमारे धर्म का मज़ाक बना रहा है. आज हम खुद ही परेशान नहीं हैं, हम अपने साथ 99 और लोगों को भी बुरा महसूस करने और उस पर प्रतिक्रिया देने पर मजबूर कर रहे हैं. हम चाहते हैं कि एक कॉमेडियन हमें हंसाए, पर हम चाहते हैं कि वो हमारे धर्म के बारें में कुछ न बोले, सेलिब्रिटी का मज़ाक न बनाएं, महिलाओं पर टिप्पणी न करें! 

और… अगर वो ऐसा करता है, तो हमें तो वैसे भी ताड़ पसंद है. 

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