ये औरतें जूतों से पानी पीने को मजबूर हैं और हम महिला-सशक्तिकरण की बात करते हैं

Komal

इस इंटरनेट की क्रान्ति से दूर, दक्षिणी राजस्थान के भीलवाड़ा में आज भी पिछड़ापन पसरा हुआ है. वहां कोई महिला-सशक्तिकरण की बात नहीं करता, Feminism के Hashtag लगा कर लोग कुछ लिखते नहीं दिखाई देते. विकास की आंधी वहां अभी पत्ते भी नहीं हिला पायी है.

एक जगह है, जहां आस-पास के गांवों से कई सौ औरतों को हर हफ़्ते लाया जाता है, एक मंदिर में. ये मंदिर कोई आम मंदिर नहीं है, यहां इन औरतों के भूत उतारे जाते हैं, Exorcism किया जाता है. भूत-बाधा दूर करने के जो तरीके इन औरतों पर आज़माए जाते हैं, वो अमानवीयता की मिसाल बन सकते हैं.

ऐसी प्रतिगामी परम्पराएं आज भी यहां चली आ रही हैं, जो तर्कसंगतता की धज्जियां उड़ा दें. अंधविश्वास पर आधारित इन सभी परम्पराओं में एक चीज़ समान है, ये दम घोंट रही हैं उस औरत का, जो आज भी पितृसत्ता की बेड़ियों में जकड़ी हुई है. उसे अपने विमुक्त होने की शायद उम्मीद भी नहीं है.

झाड़-फूंक करने वाले मंदिर के पुजारी इन औरतों के भूत उतारने के लिए क्रूरता की कोई भी हद पार करने से नहीं चूकते.

औरतों को सिर पर जूते रख कर कई किलोमीटर तक चलते देखा जाना, यहां आम बात है. हर तरह की गंदगी से सने जूते, जिन्हें छूने की भी आप कल्पना नहीं करना चाहेंगे, ये औरतें उन्हें अपने मुंह में दबाकर लाती हैं और इन जूतों में भर कर पानी पीती हैं.

भूत-बाधा जितनी बड़ी हो, इनको दी जाने वाली यातना भी उतनी ही कड़ी होती है. इन्हें 200 सीढ़ियों पर घसीटा जाता है. ये सब कुछ किया जाता है, बस इनका भूत उतारने के लिए.

फोटोग्राफर Sudhir Kasliwal, 1995 में भीलवाड़ा के बंकाया माता मंदिर गए थे. उन्हें बताया गया था कि इस मंदिर में भूत भगाने से जुड़ी धार्मिक क्रियाएं होती हैं. वहां जो दृश्य उन्होंने देखे और अपने कैमरे में कैद किये, वो उन्हें अन्दर तक झकझोर गए.

वो बताते हैं कि औरतों के साथ ऐसी बर्बरता देखना और उन्हें आस्था के नाम पर इन परम्पराओं को मानने पर मजबूर होते देखना रोंगटे खड़े कर देता है. 21 साल पहले जो उन्होंने देखा वो तो हृदयविदारक था ही, पर उससे ज़्यादा दुःख उन्हें ये देता है कि ये परम्पराएं आज भी उस इलाके में जारी हैं. आज भी औरतें जूतों से पानी पी रही हैं.

1979 में Kasliwal ने हर साल लगने वाले पुष्कर मंदिर के एक खेल पर भी काम किया था. इस खेल में ऊंटों के साथ अमानवीयता की जाती थी. इसके कुछ समय बाद ही इस खेल को बंद कर दिया गया.

इससे हमारे समाज की विडंबना साफ़ झलकती है. हम औरतों से ज़्यादा संवेदनशीलता तो जानवरों के लिए रखते हैं. तभी आज तक इन औरतों को इस कुप्रथा से नहीं बचाया जा सका है.

इस कुप्रथा से गुज़रने वाली औरतों के मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है गहरा असर

यहां लायी जाने वाली ज़्यादातर औरतें या तो किसी मानसिक बीमारी से जूझ रही होती हैं या उन्हें मानसिक रूप से अस्वस्थ करार देने के लिए ही उनके ससुराल वाले उन्हें यहां लाते हैं. कई बार उनका मकसद बस औरतों को उनकी ‘सही जगह’ याद दिलाना होता है.

इस अनोखे अस्पताल की ‘मरीज’ अकसर ‘ज़्यादा बोलने वाली’ या ससुराल में ‘ठीक से न रहने वाली’ औरतें ही बनती हैं. हैरानी की बात ये है कि ये उपचार लेने इस मंदिर में कोई आदमी नहीं आता. शायद भूत भी शिकार चुनने में भेद-भाव करते होंगे.

जो औरतें वाकई किसी मानसिक परेशानी से जूझ रही होती हैं, उन्हें ये यातनाएं और बुरी स्थिति में पहुंचा देती हैं.

ऐसा भी नहीं है कि अन्धविश्वास के नाम पर ऐसा सिर्फ ग्रामीण महिलाओं के साथ ही हो रहा है. कई पढ़े-लिखे लोग भी इन भूत उतारने वाले बाबाओं के झांसे में आ जाते हैं. अन्धविश्वास को लोग धर्म से जोड़ देते हैं, यही कारण है कि भारत में इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं.

आसाराम पर एक नाबालिग लड़की का यौन शोषण करने का आरोप है, उस लड़की को भी भूत-बाधा दूर करने के लिए ही वहां ले जाया गया था.

औरतें आसानी से ऐसे ढोंगियों का निशाना बन जाती हैं क्योंकि उनके घरवाले भी इस अन्धविश्वास में यकीन रखते हैं कि झाड़-फूंक से किसी बीमारी को ठीक किया जा सकता है. इस समस्या की वजह स्वास्थ्य संबंधित सुविधाओं और Professionals का अभाव होना भी है.

आज भी कई औरतें इन अमानवीय ‘चिकित्सकों’ के चंगुल में फंसी हुईं हैं. जब तक ऐसी कुप्रथाएं समाज में हैं, महिला-सशक्तिकरण की केवल बातें ही की जा सकती हैं. क्योंकि असल में उनकी स्थिति आज भी यही बनी हुई है. वो कुप्रथाओं की कंकड़ भरी सड़कों पर कई किलोमीटर नंगे पांव चल कर आती है और पितृसत्ता के जूतों से शोषण का पानी पीती हैं क्योंकि यही परंपरा है.

आज़ादी के सत्तर साल पूरे करने की ओर बढ़ रहे इस देश का एक चेहरा ये भी है. मानव अधिकारों का गला घोंटती और औरतों के दमन की परंपरा को सींचती ये प्रथाएं यदि इस देश की संस्कृति का हिस्सा हैं, तो क्या हम सब के लिए ये शर्म की बात नहीं है? जब तक ये जड़ से मिटा नहीं दी जातीं, क्या हमें अपने भारतीय होने पर गर्व करना चाहिए? अपनी राय ज़रूर दें. 

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