कोरोना वायरस हम सब के लिए है एक रिमाइंडर कि कितना ज़रूरी है हमारे लिए ‘ह्यूमन कनेक्शन’!

Ishi Kanodiya

अभी 2020 को शुरू हुए चंद महीने ही बीते हैं कि हम सब एक बेहद ही ख़तरनाक महामारी से जूझ रहे हैं. जी हां, आप सबने बिलकुल सही अनुमान लगाया मैं यहां बात कोरोना वायरस की कर रही हूं. 

देशों में सन्नाटा पसरा हुआ है. बच्चे घरों में क़ैद है. ऑफ़िस जाने वाले भी घर में आइसोलेटेड हैं. वायरस दिन पर दिन फैल रहा है. 

मैं हर रोज़ वायरस से जुड़ी ढेर सारी खबरें पढ़ रही हूं. आइसोलेशन और सोशल डिस्टेंसिंग जो कभी मेरी रोज़ मर्रा की बोल-चाल का हिस्सा न थे अब अचानक से मैं हर रोज़ इन पर भी एक नया आर्टिकल पढ़ रही हूं. 

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मैं हर चीज़ जानना चाहती हूं कि कहीं मेरे शहर में तो कोई पॉज़िटिव केस नहीं पाया गया. या कोई ऐसा व्यक्ति जिसको मैं जानती हूं. 

आस-पास कोई भी ख़ास या छींक रहा है तो तुरंत उससे दूरी बनने लगती है. हर चीज़ को टच करने से पहले सोचना पड़ रहा है.   

हाथ धो-धोकर मेरी त्वचा सूखती जा रही है. सैनीटाइज़र की बड़ी बोतल पिछले ही हफ़्ते लाइ थी वो भी लगभग आधी सी हो चुकी है. मार्केट में सैनीटाइज़र तो मानों सोने के भाव में बिक रहा हो. 

ऑफ़िस भले ही कितना काटने को दौड़े मगर काम करने की फ़ील तो वहीं आती है. समझ नहीं आता अकेले क्या करूं. पूरा घर भी साफ़ कर चुकी हूं. अलमारी से लेकर एक-एक मकड़ी के जाले सब साफ़ कर दिए. नेटफ़्लिक्स पर भी कुछ देखने का दिल नहीं करता. कहां पहले दिन भर फ़ोन पर लगी रहती थी अब तो फ़ोन में भी मन नहीं लगता. घर की बालकनी में खड़े होकर बाहर देखना अब मुझे ज़्यादा अच्छा लगता है. 

ऑफ़िस भले ही कितना काटने को दौड़े मगर काम करने की फ़ील तो वहीं आती है. समझ नहीं आता अकेले क्या करूं. पूरा घर भी साफ़ कर चुकी हूं. अलमारी से लेकर एक-एक मकड़ी के जाले सब साफ़ कर दिए. नेटफ़्लिक्स पर भी कुछ देखने का दिल नहीं करता. कहां पहले दिन भर फ़ोन पर लगी रहती थी अब तो फ़ोन में भी मन नहीं लगता. घर की बालकनी में खड़े होकर बाहर देखना अब मुझे ज़्यादा अच्छा लगता है. 

दिन भर मेरे मन में यही सवाल चलता रहता है कि सिचुएशन अभी और कितनी बिगड़ेगी…एक महीने, दो महीने या उससे भी ज़्यादा. क्या ये एक ऐसी महामारी है जिसका अभी और गंभीर होना बाक़ी है? क्या ये सब ख़त्म कर देगी? 

ख़ैर, इन सब बातों में ये भी है कि घरों में बंद रहने से हमें उन छोटी-छोटी बातों का महत्व समझ आ रहा है जिनकों हम फ़ॉर ग्रांटेड ले लिया करते हैं. खांसने से लेकर आराम से खुले में टहलने तक. 

अभी तक हम हर चीज़ के बारे में शिकायत किया करते थे कि शहर में कितना ट्रैफ़िक है, जीवन इतना ख़राब है, मुझे ये नहीं मिला वो नहीं मिला. मगर अब जो है उसमें ही ख़ुश हैं बस यही सोच कर कि हम जीवित है. आख़िर जीवन से ज़्यादा ज़रूरी तो कुछ नहीं न. 

rfi

हम सब जीवन भर जिन चीज़ों के पीछे भागते रहते हैं महामारी जैसे समय में उनकी कोई क़द्र नहीं क्योंकि सच तो यही है कि अंत में इंसान ही मायने रखते हैं, अंत में जीवन ही सबसे बड़ा सच है.   

मगर एक बात और ये भी कि हमें इसे गंभीरता से लेने की ज़रूरत है बस क्योंकि हमारे जानने वालों में किसी को नहीं हुआ है इसका मतलब ये नहीं कि ये गंभीर नहीं है. ये गंभीर है. हम सबको सम्भल कर रहने की ज़रूरत है. 

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