जनरल मोहन सिंह: वो क्रांतिकारी जिन्हें हिटलर ने देना चाहा था इनाम, पर उन्होंने कर दिया इंकार

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देश की आज़ादी के लिए कई नौजवान ने हंसते- हंसते अपनी ज़िंदगी क़ुर्बान कर दी थी. शहीद भगत सिंह, राजगरु, सुखदेव, लाला लाजपत राय, राम प्रसाद बिस्मिल, सुभाष चंद्र बोस, खुदीराम बोस अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ाँ, शहीद उधम सिंह तो चंद नाम हैं. देश के लिए अपने प्राणों की आहूति देने वालों की ये लिस्ट काफ़ी लंबी है. देश के ‘स्वाधीनता संग्राम’ में भाग लेने वाले एक ऐसे ही योद्धा सरदार जनरल मोहन सिंह भी थे.

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सरदार मोहन सिंह का जन्म 3 जनवरी 1909 को पाकिस्तान के सियालकोट (तत्कालीन भारत) में हुआ था. वो ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय सेना यानि ब्रिटिश इंडियन आर्मी में 1927 में भर्ती हुए थे. वो ’14 पंजाब रेजिमेंट’ में शामिल हुए थे और ट्रेनिंग के बाद रेजिमेंट की दूसरी बटालियन में तैनात किये गये थे. सन 1931 में अधिकारी बनाये जाने के तौर पर चुने गये मोहन सिंह को 6 महीने की ट्रेनिंग के लिए मध्य प्रदेश स्थित किचनर कॉलेज भेजा गया. इसके बाद ढाई साल देहरादून स्थित इन्डियन मिलिटरी अकेडमी (आईएमए) में ट्रेनिंग और पढ़ाई के बाद 1 फ़रवरी 1935 को उन्होंने कमीशन प्राप्त किया.  

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कमीशन प्राप्त करने के बाद सरदार मोहन सिंह को 1 साल के लिए ब्रिटिश सेना के साथ बॉर्डर रेजिमेंट की दूसरी बटालियन में तैनात किया गया. इसके बाद फ़रवरी 1936 में उन्हें झेलम इलाके में ’14 पंजाब रेजिमेंट’ में भेजा गया. इस दौरान उन्होंने अपने साथी फ़ौजी की बहन जसवंत कौर से विवाह कर लिया. 

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इंडियन नेशनल आर्मी का गठन

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान मार्च 1941 में उनकी यूनिट को मलाया (वर्तमान मलेयशिया) भेज दिया गया था. इस दौरान जापान ने दक्षिण पूर्व एशिया में वर्चस्व कायम करना शुरू कर दिया. जापानी सेनाओं ने बड़ी तादाद में सैनिकों को बंदी बना लिया था. तभी एक जापानी सैनिक अधिकारी मेजर फुजिवारा ने, विदेश में रहकर भारत की आज़ादी के लिए काम कर रहे ज्ञानी प्रीतम सिंह से संपर्क साधकर मोहन सिंह को राज़ी किया. इस दौरान उन्होंने बंधक बनाये हज़ारों सैनिक, जिनमें बड़ी तादाद में भारतीय भी थे, मोहन सिंह को सौंप दिए. ये ‘इंडियन नेशनल आर्मी’ के गठन की शुरुआत थी. 

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जून 1942 में अलग-अलग जगहों पर बंधक बनाये सैनिकों को भी ‘इंडियन नेशनल आर्मी’ में शामिल किया गया. इसके बाद 1 सितंबर 1942 को मोहन सिंह इसके जनरल बने. असल में ‘आज़ाद हिन्द फ़ौज’ का गठन सरदार प्रीतम सिंह और सरदार मोहन सिंह ने किया था. मोहन सिंह ‘द्वितीय विश्वयुद्ध’ के दौरान दक्षिण-पूर्व एशिया में भारतीय राष्ट्रीय सेना (Indian National Army) को संगठित करने और इसका नेतृत्व करने के लिए जाने जाते हैं.

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हिटलर से इनाम लेने से किया इंकार

सरदार मोहन सिंह ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी के लिए भी लड़ाई लड़ी थी. युद्ध के बाद हिटलर ने उन्हें इनाम देना चाहा तो सरदार मोहन सिंह ने इसे लेने से इंकार कर दिया और कहा- अगर देना ही है तो हमें अच्छे से अच्छे हथियार दीजिए, ताकि हमें सुभाष चंद्र बोस जी जैसे देशभक्त के साथ अपने देश को आज़ाद करवाना है. इसके बाद हिटलर ने उन्हें जो हथियार दिये, उन्हीं हथियारों के दम पर आज़ाद हिंद फ़ौज़ ने र॔गून में ब्रिटिश सेना के 50 हज़ार से अधिक जवानों को ढेर कर दिया था. इसके बाद ही अंग्रेज़ों ने भारत छोड़ने का फ़ैसला किया था.

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जनरल मोहन सिंह ने 21 अक्टूबर, 1943 को ‘इंडियन नेशनल आर्मी’ की कमान सुभाषचन्द्र बोस जी को सौंप दी थी. ताकि नेताजी भारत की आज़ादी का सपना पूरा हो सके. जापान की हार के बाद, मोहन सिंह को अंग्रेजों ने गिरफ़्तार कर लिया और कोर्ट मार्शल का सामना किया. हालांकि, INA लाल क़िले में चले मुक़द्दमों से जुड़ी सार्वजनिक भावनाओं के मद्देनजर मोहन सिंह को सेना से ही निकासित किया गया एवं कोई और सज़ा नहीं दी गयी.  

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देश की आज़ादी में सरदार मोहन सिंह जैसे महान योद्धाओं का अहम योगदान था, लेकिन इस महान सेनानी का नाम भारत के इतिहास से ही ग़ायब कर दिया. वो भारत की आज़ादी के बाद राज्य सभा के सदस्य भी रहे. 26 दिसंबर, 1989 को पंजाब के लुधियाना में जनरल मोहन सिंह का निधन हुआ था.

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