‘क़ुल्फ़ी’ खाकर ठंड भरी मौज तो ले लेते हो, मगर क्या इस लाजवाब चीज़ का इतिहास भी जानते हो?

Abhay Sinha

कभी क़ुल्फ़ी (Kulfi) खाई है? बिल्कुल खाई होगी. गर्मियों में ऐसा कौन है, जो इसे नहीं खाता. क्योंकि, भारत समेत पूरे दक्षिण एशिया में लोग इसे पसंंद करते हैं. इनमें म्यांमार, पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे देश शामिल हैं. हमारे देश में तो इसे ‘देसी आइसक्रीम’ समझा जाता है. 

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मगर जैसे हर फ़ूड आइटम का कोई न कोई इतिहास होता है, वैसे ही क़ुल्फ़ी के साथ भी है. क्योंकि भारत में हमेशा से क़ुल्फ़ी नहीं खाई जाती रही है. तो आख़िर पहली बार कब इसका इस्तेमाल हुआ और कैसे इसे बनाया जाता है?

कई फ़्लेवर में आती है क़ुल्फ़ी (Kulfi)

क़ुल्फ़ी दिखने में आइसक्रीम की तरह ही होती है, लेकिन ज़्यादा गाढ़ी और क्रीमी होती है. ये उत्तरी अमेरिका में जमे हुए कस्टर्ड डेसर्ट के समान है. इसके कई फ़्लेवर भी आते हैं. इनमें पिस्ता, वेनिला, आम, गुलाब, इलायची और केसर फ़्लेवर को लोग काफ़ी पसंद करते हैं. कुछ लोग इसे स्टिक में देते हैं, तो कुछ इसे कप और पत्ते में भी परोसते हैं. देशभर में लोग आपको दोनों ही तरह से इसे बेचते मिल जाएंगे.

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कहां से आई क़ुल्फ़ी?

एक मीठी डेसर्ट के तौर पर कुल्फी भारत में पहले से ही मौजूद थी. पहले ये लिक्विट फॉर्म में थी. एक गाढ़े दूध के मिश्रण के रूप में. मगर जिस क़ुल्फ़ी (Kulfi) को हम आज खा रहे हैं, उसकी शुरुआत 16वीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य के दौरान उत्तर भारत में हुई.

मुगलोंं ने पहले से मौजूद गाढ़े दूध के मिश्रण में पिस्ता और केसर मिलाया. फिर इसे धातु के शंकु में पैक किया और बर्फ और नमक के घोल का इस्तेमाल इसे जमाने में किया. इस तरह से ठंडी-ठंडी क़ुल्फ़ी तैयार हुई. फिर ये उत्तर भारत से दक्षिण भारत और देश के अन्य हिस्सों से होते हुए पूरे साउथ एशिया में पहुंंच गई. बता दें, क़ुल्फ़ी शब्द फारसी से लिया गया है, जिसका मतलब होता है ‘कवर्ड कप’.

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कैसे बनती है क़ुल्फ़ी?

क़ुल्फ़ी तैयार करने के लिए दूध को धीमी आंच पर पकाया जाता है. पकाते वक़्त इसे लगातार हिलाते रहते हैं, ताकि दूध चिपके नहीं. जब तक दूध गाढ़ा नहीं हो जाता, इसे लगातार आंच पर रखते हैं. इससे चढ़ाया गया दूध आधा रह जाता है. इससे दूध में शुगर और लैक्टोज़ कैरामेलाइज़ हो जाता है, जो क़ुल्फ़ी को एक अलग स्वाद देता है.

फिर इसे सांचों में डालकर नमक और बर्फ से भरे बर्तन में जमाया जाता है. बर्तन पूरी तरह से इंसुलेटड होता है, जो बाहर की गर्मी को अंदर नहीं आने देता. साथ ही, अंदर बर्फ़ को जल्दी पिघलने नहीं देता. इसके लिए मिट्टी के घड़े का इस्तेमाल भी होता है, जो इसके स्वाद में सोंधापन भी ला देता है. 

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इस धीमी गति से जमने की प्रक्रिया का मतलब है कि बर्फ के क्रिस्टल नहीं बनते हैं, जिससे कुल्फी को एक चिकनी, मखमली बनावट मिलती है. यही बात इसे वेस्टर्न आइसक्रीम से अलग भी करती है. क्योंकि क़ुल्फ़ी की डेंस बनावट उसे आइसक्रीम की तुलना में देर तक जमा हुआ रखती है. वो जल्दी नहीं पिघलती.

वैसे आजकल लोग घर पर भी फ़्रिज में जल्दी क़ुल्फ़ी (Kulfi) जमा लेते हैं. मगर इसका स्वाद पारंपरिक तरीके से बनाई गई क़ुल्फ़ी जैसा कतई नहीं हो पाता.

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