दुनियाभर की प्राचीन सभ्यताओं में शव दफ़नाने की अलग-अलग परंपराओं का पालन किया जाता था. मसलन, भारत के लोथल और कालीबंगा में युग्म समाधियां मिली हैं. मिस्र में शवों को ममी में बदल दिया जाता था. साथ ही, शवों के साथ क़ीमती सामान भी दफ़नाए जाते थे, ताकि दूसरी दुनिया में उनके काम आ सकें.
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मगर पेरू (Peru) में बिल्कुल ही अजीबो-ग़रीब प्रथा का पालन किया जाता था, जिसने शोधकर्ताओं को भी चौंंका दिया है. यहां कब्रों से ऐसे शव मिले हैं, जिनकी रीढ़ की हड्डियों को लकड़ियों में पिरो कर रखा गया था.
चिन्छा घाटी (Chincha Valley) में मिली कब्रें
यूनिवर्सिटी ऑफ़ ईस्ट एंग्लिया (UEA) के नेतृत्व में रिसर्चर्स की एक टीम को क़रीब 200 क़ब्र मिली हैं. ये सभी चिन्छा घाटी (Chincha Valley) में दफ़्न थीं और क़रीब 1450-1650 ईस्वी के बीच की बताई जा रही हैं. यहां से जो शव मिले हैं, उनकी रीढ़ की हड्डियों को लकड़ियों में पिरो कर रखा गया था. कुछ लकड़ियों के ऊपर हिस्से में सिर का कंकाल भी फंसाया गया था.
इस खोज को हाल ही में जर्नल एंटीक्विटी में में प्रकाशित किया गया है. जिसमें बताया गया है कि ये बेहद अजीबो-ग़रीब प्रथा थी. बता दें, चिन्छा घाटी, पेरू की राजधानी लीमा से 200 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है.
क्या था इस अजीबो-ग़रीब प्रथा का कारण?
शवों को इस तरह से रखने की अजीबो-ग़रीब प्रथा के पीछे यूरोपियन आक्रमण ज़िम्मेदार था. कहते हैं कि 500 साल पहले जब यूरोपियन लोगों ने हमला किया था, तब यहां के लोगों का कत्लेआम किया था. उस वक़्त बड़ी संख्या में लोग भूख और बीमारियों से भी मारे गए थे. उन्होंने ज़िंदा लोगों को तो अपना शिकार बनाया ही था, साथ में, मुर्दों को भी नहीं छोड़ा.
दरअसल, यहां का एक रिवाज़ था, जिसके तहत शव के साथ क़ीमती चीज़ों को भी दफ़नाया जाता था. इसमें बर्तनों से लेकर क़ीमती जेवर तक शामिल होते थे. ऐसे में जब यूरोपियन डकैत और शासक लूटपाट मचाते, तो वो इन कब्रों को भी नहीं छोड़ते. इस वजह से सारे शव क्षत-विक्षत हो जाते थे.
इसके बाद जब वो चले जाते तो, चिन्छा घाटी के निवासी वापस से सभी शवों को इकट्ठा करते. उनकी हड्डियों को लकड़ी में डालते और अंतिम सिरे पर सिर का कंकाल लगा देते थे. उसके बाद दोबारा शव को दफ़न कर दिया जाता था.
तेज़ी से घटी चिन्छा घाटी की आबादी
औपनिवेशिक काल चिन्छा लोगों के लिए एक मुश्किल समय था. शोधकर्ताओं के मुताबिक, यहां साल 1533 में 30,000 के क़रीब लोग रहते थे, जिनकी संख्या साल 1583 में घटकर महज़ 979 रह गई थी. ऐसा यूरोपियनों के आक्रमण, महामारी और भुखमरी के कारण हुआ था.
बताया गया कि यूरोपीय लुटेरों ने सोने और चांदी की वस्तुओं की चोरी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. उन्होंने कब्रों तक को खोद डाला था. इसके पीछे उनका मक़सद था कि चिन्छा घाटी के स्थानीय लोगों और उनकी परंपरा को पूरी तरह से ख़त्म कर दिया जाए.