मुंबई का ये एंबुलेंस चालक, जान जोखिम में डाल, 16 घंटे की शिफ़्ट कर बचा रहा लोगों की ज़िंदगियां

Ishi Kanodiya

इस वक़्त दुनिया में शायद ही कोई व्यक्ति होगा जिस पर Covid-19 का असर न पड़ रहा हो. क्या बच्चे और क्या बुज़ुर्ग सब एक ही नाव पर सवार हैं. मगर सबसे ज़्यादा दिक़्क़तों का सामना कोरोना से जंग में सबसे आगे खड़े फ़्रंटलाइन वर्कर्स को करना पड़ रहा है. इस लड़ाई में हर पल उनका जीवन जोखिम में है.  

बिलकुल मुंबई के इस एंबुलेंस चालक की तरह जो संकट के समय जान बचाने के लिए दिन-रात काम कर रहा है.  

मिलिए कोरोना योद्धा इज़हार हुसैन शेख़ से. 

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30 वर्षीय एंबुलेंस चालक, HelpNow के लिए काम करते हैं. HelpNow 2019 में तीन इंजीनियरिंग छात्रों द्वारा शुरू की गई एक पहल है. ये पहल इज़हार जैसे First Responders द्वारा मुंबई वासियों की मदद करने के लिए बनाई गई है. ये पहल मरीज़ों से शुल्क लेती है, लेकिन शहर के प्रशासकों, पुलिस बल, चिकित्सा सेवा और ग़रीबों के लिए इसकी सेवाएं मुफ़्त हैं. 

मुंबई जैसा शहर जहां हमेशा से ही एम्बुलेंस की कमी रही है और ऊपर से कोरोना वायरस जैसी महामारी ने शहर के 3,000 से ज़्यादा लोगों की जान ले ली है, ऐसे समय में ये स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली पर और तनाव डालती है.  

जिसके चलते इस वक़्त हर मदद मायने रखती है. और ये शेख़ जैसे ही लोग हैं जो अपनी जान जोखिम में डाल, बिना रुके काम कर रहे हैं ताकि किसी भी तरह ये तनाव कम हो.   

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ऐसे समय में जब हर मदद हाथ में आती है, शेख़ सभी ख़तरे के बावजूद कई लोगों के लिए एक जीवन रक्षक साबित हुए हैं. AP से बात करते हुए उन्होंने कहा: 

‘मेरा परिवार, पड़ोसी, हर कोई डरा हुआ है. मैं भी भयभीत हूं. लेकिन मैं उन्हें और ख़ुद को ये बताता रहता हूं कि इस दौरान लोगों की मदद करने का यह हमारा तरीक़ा है.’ 

यह एक थका देने वाला काम है, जिसमें शेख़ की दैनिक शिफ़्ट कभी-कभी 16 घंटे तक चलती है.  

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कोविड रोगियों के लिए मुंबई और दिल्ली के अस्पतालों में बिस्तरों की कमी के बारे में कई रिपोर्टें आई हैं. शेख़ ने ऐसी घटनाओं के बारे में भी बात की, जब उन्हें रोगियों को भर्ती करवाने के लिए या तो घंटों अस्पताल के बाहर इंतज़ार करना पड़ता था या एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल एम्बुलेंस लेकर जाना पड़ता है जब तक कोई उस मरीज़ को भर्ती न करे.  

‘ऐसी घटनाएं भी हुई हैं जब मरीज़ हॉस्पिटल के लिए लंबे समय तक इंतज़ार करते-करते दम तोड़ देता है. एक मरीज़ को जीवित अस्पताल तक ड्राइव करके पहुंचाना और फिर उसी मरीज़ को कुछ घंटों बाद उसके दफ़न या दाह संस्कार के लिए ले जाना सबसे कठिन हिस्सा है.’ 

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मगर जहां अंधकार है, वहां रोशनी भी ज़रूर होती है. और शेख़ ने भी इन मुश्किल दिनों में ऐसे पल भी जिए हैं जब उन्हें आशा की किरण दिखती है.  

कुछ हफ़्ते पहले ही, उन्होंने एक 80 वर्षीय कोरोना पॉज़िटिव बुज़ुर्ग महिला को अस्पताल में भर्ती करवाया था. उनके ठीक होने पर, शेख़ ने ही उन्हें वापिस घर भी छोड़ा था.  

और यह अच्छे दिनों की उम्मीद ही है जो उन्हें हर दिन थकावट और ख़तरे से भरे इस काम में आगे बढ़ने की हिम्मत देती है.  

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