Plastic डब्बों के सहारे और क़िस्मत के भरोसे नदी में बहकर बांग्लादेश पहुंच रहे हैं किशोर रोहिंग्या

Sanchita Pathak

ज़िन्दगी और मौत के बीच झूलते हज़ारों रोहिंग्या मुसलमानों के लिए आज इतनी बड़ी पृथ्वी भी छोटी पड़ रही है. इनमें से कई मौत के आगे घुटने टेक दे रहे हैं, लेकिन कुछ जाबांज़ हर मुश्किल को पार के ज़िन्दगी की लड़ाई जीत रहे हैं.

ऐसी ही कहानी है 13 वर्षीय नबि हुसैन की. नबि एक रोहिंग्या मुसलमान है और उसे तैरना नहीं आता था. लेकिन म्यांमार स्थित अपने गांव से वो एक प्लास्टिक कन्टेनर के सहारे ही बांग्लादेश के तट तक पहुंचा.

रोहिंग्या मुसलमान म्यांमार सेना के अत्याचारों से बचकर समुद्र के सहारे बांग्लादेश पहुंच रहे हैं. 1 हफ़्ते के अंदर 3 दर्जन से ज़्यादा लड़के और पुरुष खाना बनाने वाले तेल के कन्टेनर के सहारे तैरते-तैरते बांग्लादेश पहुंचे हैं. इन लोगों ने प्लास्टिक के कन्टेनर्स को राफ़्ट की तरह इस्तेमाल किया और बांग्लादेश के शाह पोरिर तट पर पहुंचे.

नबि ने बताया,

मुझे लगा कि मैं मरने वाला हूं. मुझे लगा वो मेरा आख़िरी दिन होगा.

नबि बांग्लादेश में किसी को नहीं जानता. उसके माता-पिता म्यांमार में ही रह गए थे जब वो बांग्लादेश भागा था. उसे ये भी नहीं पता कि उसके माता-पिता ज़िन्दा भी हैं या नहीं. वो मुस्कुराना तो दूर किसी से आंख तक नहीं मिलाता.

सालों से म्यांमार में रहने वाले रोहिंग्या मुसलमानों को इस बौद्ध बहुल देश में आक्रमणकारियों की तरह ही देखा जाता है. सरकार ने इन्हें मौलिक अधिकारों से वंचित रखा था. अगस्त में रोहिंग्या मुसलमानों पर म्यांमार की सेना ने बर्बरतापूर्ण व्यवहार करना शुरू किया. सैनिकों और बौद्ध धर्म के लोगों ने उनके घर जला दिए और पुरुषों की निर्मम हत्या की. कई बहू-बेटियों की इज़्ज़त लूटी गई. मजबूरन 600,000 रोहिंग्या मुसलमानों को म्यांमार छोड़कर भागना पड़ा.

म्यांमार सैनिकों की बर्बता तब और बढ़ गई जब कुछ रोहिंग्या मुसलमानों ने उनके खिलाफ़ कार्रवाही शुरू कर दी. सैनिकों ने दोगुनी बर्बता और क्रूरता दिखाई. इंसानों समेत सैंकड़ों घर जला दिए गए, कई औरतों को बेआबरू किया गया. नबि ने भी आखिरी बार जब अपने गांव को देखा था तो वहां एक-एक घर को आगे के हवाले कर दिया गया था. उसके माता-पिता नहीं चाहते थे कि वो भागकर बांग्लादेश जाए. बहुत कहने पर उसके माता-पिता उसे 23 अन्य लोगों के साथ भेजने को तैयार हुए. उसने आख़िरी बार अपनी मां से कहा था,

अम्मी मुझे अपनी दुआओं में याद ज़रूर करना.

नबी और उसके साथियों ने अपनी छाती पर कन्टेनर बांधा और बांग्लादेश की ओर चल दिए. ये लोग तीन की संख्या में एक-दूसरे से बंधे हुए थे. नबि छोटा था और उसे तैरना नहीं आता था इसलिये वो बीच में था.

नबि अब अकेला है, उसका कोई अपना नहीं है. आंकड़ों के अनुसार 40 हज़ार रोहिंग्या मुसलमान बच्चे बांग्लादेश में हैं.

नबि की सबसे बड़ी इच्छा है कि उसे उसकी पिछली ज़िन्दगी वापस मिल जाए.

कन्टेनर के सहारे ही तैरकर आए 18 वर्षीय कमल हुसैन ने बताया,

हमें बहुत कुछ सहना पड़ा. हम पर बहुत ज़ुल्म किये जा रहे थे. इसलिये हमने पानी में डूबकर मरना ज़्यादा बहतर समझा.

ज़रा सोचिये कि जिस देश में आप पीढ़ियों से रहते आ रहे हैं वहां से आपको एक पल में निकाल दिया जाए, तो कैसा लगेगा आपको? उस एक पल में आपके मन में क्या आएगा? अपने देश के प्रति असंतोष की भावना नहीं आएगी? कुछ ऐसा ही हर रोहिंग्या मुसलमान महसूस कर रहा है. समझ नहीं आता कि लोगों की नफ़रत इतनी बड़ी कैसे हो जाती है कि एक बिलखते बच्चे का स्वर या भूख से झांकती आंखे भी दिखाई नहीं देती?

Source- Daily Mail

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