सबसे ज़्यादा साक्षरता वाले राज्य में ‘सबरीमाला विवाद’ बहुत बड़ी विडंबना है

Kundan Kumar

28 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला सुनाया कि केरल के सबरीमाला मंदिर में हर उम्र की महिला प्रवेश कर सकती है. मगर ये फ़ैसला आने के बाद भी विरोध-प्रदर्शन की वजह से पिछले साल तक कोई महिला मंदिर के भीतर तक दाखिल नहीं हो पाई थी.

1 जनवरी को सुबह-सुबह 50 वर्ष से कम उम्र की दो महिलाएं बिंदु और कनकदुर्गा पुलिस के संरक्षण में मंदिर के भीतर गईं और दो मिनट में पूजा करके वापस आ गईं. सबरीमाला मंदिर के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ था.

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उन दो महिलाओं के बाहर आने के बाद लगभग दो-ढाई घंटों तक मंदिर को बंद करके उसका शुद्धिकरण किया गया.

इस पूरे घटनाक्रम ने केरल में उथल-पुथल मचा दी. दक्षिणपंथी संगठनों ने विरोध प्रदर्शन कर आज राज्यबंदी की घोषणा की है. मुख्यरूप से भारतीय जनता पार्टी विरोध की आवाज़ को बुलंद कर रही है.

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भाजपा का आरोप है कि केरल सरकार जान-बूझ कर हिन्दू भावनाओं को ठेस पहुंचा रही है. वहीं सरकार ने अपना पक्ष रखते हुए कहा है कि वो नियमों के तहत कोर्ट के फ़ैसले का पालन कर रही है.

आपको बता दें कि आज राज्य बंद के दौरान पंडालम में सीपीआएम और भाजपा के कार्यकर्ताओं के बीच हुई झड़प में गंभीर चोट लगने से सबरीमाला कर्म समिति के एक 55 वर्षीय कार्यकर्ता की मौत हो गई.

मंदिर के भीतर महिला के जाने पर केंद्रीय मंत्री अनंत कुमार हेगड़े ने इस घटना की तुलना करते हुए कहा कि ये ‘हिन्दुओं से दिन-दहाड़े रेप’ जैसा है, केंद्रीय मंत्री का यह बयान महिलाओं और बलात्कार जैसे गंभीर जुर्म के प्रति उनकी असंवेदनशीलता ज़ाहिर करता है.

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कांग्रेस इस पूरे मामले से दूरी बना कर चल रही है, उनके नेता शशि थरूर ने कहा है कि इस मामले पर सीपीआई और भाजपा के लोग ठीक तरीके से काम नहीं कर रहे हैं, उनको कोर्ट के अंतिम फ़ैसले का इंतज़ार करना चाहिए.

वहीं शुद्धिकरण के लिए मंदिर को बंद करने की घटना पर कोर्ट में याचिका दाखिल की गई, लेकिन कोर्ट ने इस पर तुरंत सुनवाई करने से मना कर दिया है. इसके साथ ही चीफ़ जस्टिस रंजन गोगोई ने कहा कि इस मामले के लिए अलग से बेंच का गठन नहीं होगा. कोर्ट में याचिका की सुनवाई 22 जनवरी को होगी.

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जिन लोगों का कहना कि मंदिर के भीतर महिलाओं को प्रवेश नहीं मिलना चाहिए उनका प्रमुख तर्क है कि भगवान अय्यपा एक ब्रह्मचारी थे, इसलिए उनको महिला के संपर्क में आने की मनाही है. इस तर्क को वो आस्था का विषय बता कर इसका बचाव करते हैं.

लेकिन एक लोकतांत्रिक देश में कोई भी आस्था नागरिक के अधिकार के ऊपर नहीं हो सकती. हमारे संविधान में महिला एवं पुरुष को बाराबर हक दिए गए हैं. देश के भीतर कोई भी संस्था लिंग के आधार पर नागरिक के साथ भेद-भाव नहीं कर सकती.

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एक वक़्त था जब हमारे समाज में सती प्रथा, बाल विवाह, विधवा विवाह, दहेज, बहुविवाह आदि जैसे कुप्रथाओं के बचाव के वक़्त यही तर्क दिए जाते थे कि इनसे लोगों की आस्था जुड़ी हुई है.

भारत में संवैधानिक अधिकार के दायरे में सबको अपने धार्मिक विश्वास के हिसाब से जीने का अधिकार है. लेकिन धार्मिक विश्वास का हवाला देकर किसी के संवैधानिक अधिकार का हनन नहीं किया जा सकता.

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