हवा में लहराने से बजती है मनीराम की ये बांसुरी, जंगल के साथ कहीं ये कला भी न हो जाए ख़त्म

Abhay Sinha

आपने ऐसी बांसुरी कई बार देखी होगी, जिसमें मुंह से फूंक मारने पर मधुर धुन निकलती है. मगर आज हम आपको एक ऐसी बांसुरी दिखाएंगे, जिसे बजाने के लिए सिर्फ़ हवा में घुमाना होता है. इस बांसुरी में मुंह नहीं होता है, सिर्फ़ दो छेद होते हैं. बांसुरी को हवा में घुमाते ही इन छेदों से हवा गुज़रती है और मधुर धुन निकलने लगती है.   

हालांकि, इस मधुर संगीत के पीछे कई दर्द भी छिपे हैं, जिसे आप तक पहुंचना ज़रूरी है. यही वजह है कि आज हम आपको छत्तीसगढ़ के मनीराम मंडावी की कहानी बता रहे हैं.   

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नारायणपुर जिले के गढ़ बेंगाल गांव में 42 वर्षीय मनीराम बांस की कई कलाकृतियां बनाते हैं, उसी में से एक ये बांसुरी भी है. वो बताते हैं कि इस बांसुरी से धुन निकलती है और ये जंगली जानवरों को भगाने के काम भी आती है.   

उन्होंने बताया, ‘पहले जंगल में बाघ, चीता और भालू जैसे जानवर थे. ऐसे में जब आप इसे हवा में घुमाते थे, तो इसकी आवाज़ से जानवर आपसे दूर भाग जाते थे.’  

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मनिराम को एक बांसुरी बनाने में कई घंटे का समय लगता है. बांस काटने-छाटने, उसमें डिज़ाइन बनाने में काफ़ी वक़्त जाता है. इसे वो एक्जिबीशन में भी ले जाते हैं, लेकिन इसके बाद भी उनकी मेहनत का सही दाम नहीं मिलता. जो बांसुरी बाज़ार में 300 रुपये में बिकती है, उसके लिए उन्हें महज़ 50 रुपये मिलते हैं.   

15 साल की उम्र में सीखा था हुनर  

मनीराम ने क़रीब तीन दशक पहले इस शिल्प को अपनाया. वो बताते हैं कि जब वो 15 साल के थे, तब उन्हें उस्ताद मंदार सिंह मंडावी से इस शिल्प को सीखने का मौक़ा मिला था. तब से वो यही काम कर रहे हैं. अबूझमाड़ (ओरछा) ब्लॉक के जंगलों में गोंड आदिवासी समुदाय की उनकी बस्ती है. यहीं पर उनकी एक छोटी से वर्कशॉप है.   

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मनीराम की पत्नी और तीन बच्चे हैं. ऐसे में जब वो बांसुरी नहीं बना रहे होते हैं, तब वो अपनी दो एकड़ ज़मीन पर खेती करते हैं, ताकि परिवार पालने के लिए कुछ अतिरिक्त आय बन पाए.   

जंगल के साथ-साथ इस कला पर भी मंडरा रहा ख़तरा  

पहले के समय को याद करते हुए मनिराम की आंखों में आंसू आ जाते हैं. वो कहते हैं कि आज बांसुरी के लिए बांस लाने नारायणपुर शहर पैदल चलकर जाना पड़ता है. 20 साल पहले जंगल यहीं था और आसानी से बांस मिल जाता था. अब तो कम से कम 10 किमी की दूरी तय करनी पड़ती है. पूरा जंगल ख़त्म होता जा रहा है. इसके साथ ही घुमाने वाली बांसुरी बनाना भी मुश्किल होता जा रहा है.   

उन्होंने बताया कि उस वक़्त जंगल घने होते थे. सागौन, जामुन और बेलवा के कई बड़े पेड़ थे. यहां ख़रगोश और हिरण हुआ करते थे. कभी-कभी नीलगाय भी दिख जाती थी. जंगली सूअर भी यहां ग़ायब हो चुके हैं. हमारे ही लोगों ने सब ख़त्म कर दिया. कल जब बच्चे पूछेंगे कि इस जंगल में जानवर होता था कि नहीं? हम उन्हें नहीं बता पाएंगे कि यहां सब था, लेकिन आप लोगों को दिखाई नहीं देगा. आपके भाई-परिवार ने सब काटकर ख़त्म कर दिया.   

मनिराम कहते हैं कि सरकार कुछ नहीं कर सकती है, अगर हमारे भाई आदिवासी साथ देंगे तो ये सब बच जाएगा.  

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