एक थिएटर हॉल की दास्तां जहां कभी लगती हैं 90s की फ़िल्में और कभी रखा जाता है गेहूं और बाजरा

Ravi Gupta

‘लकड़ी की सीटें, फर्श भी ज़्यादा कुछ ख़ास नहीं, एंबियेंस भी काम चलाऊ’, ये हाल है मध्यप्रदेश के एक छोटे से गांव जौरा के श्रीराम सिनेमा का. लेकिन फिर भी लोग साल 2001 में आयी संजय कपूर की फ़िल्म, छुपा-रुस्तम को देखने आए हैं. फ़िल्म में एक सॉलिड सीन आने वाला है. तभी हॉल का गेट खुलता है और एक शख़्स गेंहू की बोरियां लेकर अंदर दाख़िल होता है. तकरीबन 50 बोरियां वो स्क्रीन के आगे रखता है लेकिन लोग बेहद शांति से मूवी देखते रहते हैं.

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हो गए ना हैरान कि ये आखिर हो क्या रहा है? ये हाल है श्रीराम सिनेमा का, जो अब गोदाम में तब्दील हो चुका है. श्रीराम सिनेमा के मालिक गौरी शंकर गौड़ का कहना है कि अब बहुत कम लोग फ़िल्म देखने के लिए आते हैं, जिससे टिकट की बिक्री इतनी भी नहीं हो पाती है कि बिजली का बिल निकल जाए. इसलिए उन्होंने अपने दोस्तों को यहां पर गेंहू और बाजरा रखने की अनुमति दे रखी है.

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इस हॉल में टोटल 100 सीटें हैं. दिन में दो शो चलते हैं. एक दिन में और एक शाम में. एक सीट का टिकट 15 रुपये का है. टिकट काउंटर आम मोबाइल रिचार्ज शॉप में तब्दील हो चुका है. हॉल के गेट के पास एक छोटी सी परचून की दुकान भी है. गौड़ ने ये सारे जुगाड़ सिर्फ़ पैसे कमाने के लिए किए हुए हैं.

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लगभग 2 दशक पहले गौड़ पहले अपने किसी रिश्तेदार के थिएटर हॉल में काम करते थे. लेकिन साल 2002 में उन्होंने ख़ुद का थिएटर खोल लिया. लेकिन पायरेटेड वीसीआर की वजह से उनका सिंगल स्क्रीन थिएटर कभी चल ही नहीं पाया. गौड़ बताते हैं कि उन्हीं के क्षेत्र के 2 थिएटर ‘रंग महल’ और ‘आरज़ू’ बंद हो चुके हैं. उन्हें भी लगता है कि जल्द ही उनका समय भी आने वाला है. लेकिन एक समय हुआ करता था जब जौरा गांव के सभी हॉल में धार्मिक और डकैती वाली फ़िल्में ख़ूब चला करती थीं.

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