ज़िंदगी अग़र मुश्किल लगे तो दृष्टिहीन सुधाकर की कहानी पढ़िए, सबकुछ आसान लगने लगेगा

Abhay Sinha

 ‘तुम वक़्त-बेवक़्त यही बात करते हो

 हर हालात को मुश्क़िल हालात कहते हो 
ख़ुद की नज़रों में ख़ुद को ही बेचैन पाने वाले
तुम अजीब से शख़्स ख़ुद को इंसान कहते हो’ 

लोगों की नज़रें सिर्फ़ ज़मीन पर बनी परछाई में अंधेरे की शिकायत करती हैं, मगर ख़ुद पर पड़ने वाली रौशनी नहीं देख पातीं. ख़ुद का दुख और तकलीफ़ें इतनी बड़ी लगती है, मानो जो उन पर बीता है वो दुनिया में किसी ने नहीं झेला. लेकिन वास्तविकता इससे परे है.

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दुनिया में ऐसे बहुत से लोग हैं, जिनकी आंखों के आगे सिर्फ़ अंधेरा है, फिर भी उनके ख़्वाब रौशनी से भरपूर हैं. ये लोग हर रोज़ मुश्किल हालात का सामना करने को मजबूर हैं, लेकिन फिर भी उनके चेहरों पर एक ज़िंदा मुस्कान खिलती है. केरल के सुधाकर कुरुप भी ऐसे ही ज़िंदादिल लोगों में से एक हैं, जो हर रोज़ अपनी अंधेरी दुनिया में उम्मीद का चराग जलाते हैं.

69 वर्षीय दृष्टिबाधित सुधाकर कुरुप पिछले 46 वर्षों से केरल के पथानमथिट्टा जिले में स्टेशनरी की एक दुकान चला रहे हैं. वो बिना किसी की मदद के अपना सारा काम करते हैं. 

हालांकि, उनकी ज़िंदगी हमेशा से ऐसी नहीं थी. वो 14 साल की उम्र तक सबकुछ देख सकते थे. लेकिन उसके बाद ग्लूकोमा के कारण उनके आंखों की रौशनी धीरे-धीरे कम होती गई और 21 साल की उम्र तक उन्हें पूरी तरह दिखना बंद हो गया. 

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एक 21 साल का लड़का जिसके आगे अभी पूरी ज़िंदगी पड़ी हो, वो इस ख़बर को सुनकर किस हद तक टूट गया होगा, शायद ही आप इसकी कल्पना कर सकें. सुधाकर भी परेशान थे. एक तरफ़ आंखें खोने का दुख तो दूसरी ओर परिवार पर बोझ बनने का डर उन्हें परेशान कर रहा था. हालांकि, सुधाकर ने हिम्मत नहीं हारी और अपने हालात के हिसाब से ख़ुद को तैयार करने लगे. 

‘हम लाइफ़ में हर चीज़ प्लान नहीं कर सकते और अप्रत्याशित चुनौतियों से बच नहीं सकते. ये हमें अपने कम्फ़र्ट ज़ोन से बाहर निकलने के लिए मजबूर करती हैं. अगर मैं इस चुनौती से बचने की कोशिश करता, तो मुझे सीखने और बढ़ने का अवसर नहीं मिलता.’

सुधाकर के मुताबिक, वो कभी छड़ी का इस्तेमाल नहीं करते हैं. चाहें घर जाना हो या फिर दुकान से सामान निकालकर देना हो, उन्हें अपने क़दमों से सबकुछ याद रहता है. जैसे उनके दुकान और घर के बीच 80 क़दम की दूरी है. 

सुधाकर को सामान देने और पैसों हिसाब करने में भी परेशानी नहीं होती. हालांकि, नोटबंदी के वक़्त उन्हें काफ़ी परेशानी हुई थी. उन्हें नए नोटों का समझने में हफ़्ते भर से ज़्यादा का समय लग गया था. 

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सुधाकर को अपने काम पर गर्व है और वो आंख़िरी सांस तक अपने स्टोर पर काम करना चाहते हैं. हालांकि, ये भी एक सच है कि उन्हें हर रोज़ चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. फिर भी उनकी बातों से ज़िंदगी को लेकर कोई शिकायत ज़ाहिर नहीं होती. 

वहीं, जिन लोगों के पास सबकुछ है, वो बेवजह की बातों पर दुख मनाते हैं. कमर दर्द की भी शिकायत हो जाए, तो नर्म सोफ़ों को कोसने बैठ जाते हैं. हमें सुधाकर और उनके जैसे लोगों की तरफ़ देखना चाहिए, उनसे सीखना चाहिए. हम ज़िंदगी को चुनौती की तरह लेकर परेशान हो सकते हैं या फिर हर दिन कुछ नया जीने और करने का अवसर मानकर ख़ुश हो सकते हैं. ये सिर्फ़ और सिर्फ़ हम पर निर्भर करता है.

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