अगर दोस्तों ने गद्दारी ना की होती तो हमें 1915 में ही आज़ादी मिल जाती, और देश के राष्ट्रपिता यही होते

Bikram Singh

मुश्किल हालात थे, टूटे हुए जज़्बात थे. अंग्रेजों का अत्याचार चरम पर था. हर हिन्दुस्तानी अंग्रेजों की बर्बरता, जुल्म और अन्याय से आजादी चाहता था. हिन्दुस्तान की अवाम किसी भी कीमत पर अब आजादी चाहती थी. मन में रोष था, अंग्रेजों के ख़िलाफ नफ़रत थी. ऐसे में कई सपूत देश की आजादी के लिए एक दीप की तरह आए, जो समंदर की तेज लहरों से टकराने का माद्दा रखते थे. उनकी हिम्मत देख अंग्रेज भी उनके क़ायल हो जाते थे. तमाम मुश्किलातों के बाद आख़िरकार हमें आजादी मिली. आज हम चैन की सांस ले रहे हैं. बेरोक-टोक कहीं जा रहे हैं. पूरा हिन्दुस्तान उन स्वतंत्रता सेनानियों का शुक्रगुजार है और हमेशा रहेगा. लेकिन सबसे दुखद बात ये है कि स्वतंत्रता की लड़ाई का इतिहास लिखते समय कई क्रान्तिकारियों को नाइंसाफी का शिकार होना पड़ा. ‘यतीन्द्रनाथ मुखर्जी’ उनमें से ही एक क्रांतिकारी थे. इनके बारे में आपको बता दूं कि ‘ वे उस दौर के हीरो थे.’

बंगाल का बालक, मजबूत कद-काठी, बाज़ जैसी नज़रें, चीते की चाल, सीने में देशप्रेम की आग और जुबां पर हिन्दुस्तान की आजादी का जूनून, कुछ इस तरह की यतीन्द्रनाथ मुखर्जी की पहचान है. इनका जन्म बंगाल के नादिया में हुआ था, जो अब बांग्लादेश में है.कम उम्र में पिता की मौत के बाद इनका लालन-पालन नानी घर में हुआ. बचपन से ही इनकी रुचि भाग-दौड़ वाले खेलों में रही. इस वजह से उनका शरीर काफ़ी बलिष्ठ हो गया.

bharatniti

आर्टिकल पढ़ने से पहले पढ़ें ये महत्वपूर्ण तथ्य

  • इतिहासकारों के अनुसार, अगर साथी इनसे गद्दारी नहीं करते और इनका प्लान कामयाब हो जाता, तो हमें 1915 में ही आज़ादी मिल जाती. इसके लिए देश को न गांधी की ज़रूरत पड़ती और न बोस की.
  • बचपन से ही ये बलशाली थे.11 साल की उम्र में ही उन्होंने शहर के बिगड़ैल घोड़ों को काबू करना शुरु कर दिया था.
  • अंग्रेजों और अंग्रेजी हुकूमत से इन्हें इतनी नफ़रत थी कि वो अंग्रेजों को जहां अकेला देखते थे, उन्हें पीट देते थे. एक बार तो एक रेलवे स्टेशन पर यतीन्द्र नाथ ने अकेले ही आठ-आठ अंग्रेजों को पीट दिया था. अंग्रेज इनसे ख़ौफ खाते थे.
  • चेक गणराज्य के इतिहासकार कहते हैं कि ‘इस प्लान में अगर इमेनुअल विक्टर वोस्का (चेक एजेंट) न घुसता, तो किसी ने भारत में गांधी का नाम तक न सुना होता और ‘राष्ट्रपिता’ बाघा जतिन को कहा जाता.’
  • उनकी मौत के बाद चले ट्रायल के दौरान ब्रिटिश प्रोसीक्यूशन ऑफिसर ने कहा, “Were this man living, he might lead the world.”. इस वाक्य से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि कितना खौफ होगा बाघा जतिन का उस वक़्त.
  • बंगाल के पुलिस कमिश्नर रहे चार्ल्स टेगार्ट से कहा था कि ‘अगर बाघा जतिन अंग्रेज होते, तो अंग्रेज लोग उनका स्टेच्यू लंदन में ट्रेफलगर स्क्वायर पर नेलसन के बगल में लगवाते’.
  • जतिन के शब्द लोग आज भी याद करते हैं, वो कहा करते थे, ‘अमरा मोरबो, जगत जागबे’ यानी ‘हमारे मरने से देश जागेगा’.

विवेकानंद से काफ़ी प्रभावित थे

यतीन्द्रनाथ मुखर्जी स्वामी विवेकानंद से इतने प्रभावित हुए कि वे रोज उनके पास जाने लगे. उनका गठीला बदन देख कर विवेकानंद ने उन्हें अम्बू गुहा के देसी जिम में भेजा, ताकि वो कुश्ती के दांव-पेंच सीख सकें.

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“भारत की एक अपनी नेशनल आर्मी होनी चाहिए”

पढ़ाई पूरी करते ही वे 1899 में मुज़फ्फरपुर में बैरिस्टर पिंगले के सेक्रेटरी बनकर पहुंचे, जो बैरिस्टर होने के साथ-साथ एक इतिहासकार भी था. उसके साथ रहकर जतिन ने महसूस किया कि भारत की एक अपनी नेशनल आर्मी होनी चाहिए. शायद यह भारत की नेशनल आर्मी बनाने का पहला विचार था. जो बाद में मोहन सिंह, रास बिहारी बोस और सुभाष चंद्र बोस के चलते अस्तित्व में आई.

Theweek

‘यतीन्द्रनाथ मुखर्जी’ से ‘बाघा जतिन’ तक का सफ़र

घरवालों के दबाव में आकर उन्हें मजबूरन शादी करनी पड़ी. लेकिन बड़े बेटे की अचानक मौत से वे काफी विचलित हुए. आंतरिक शांति के लिए हरिद्वार की यात्रा की. वापस लौटने पर जानकारी मिली कि उनके गांव में एक तेंदुए का आतंक है. बिना समय व्यर्थ किए वो उसे जंगल में ढूंढने निकल पड़े. रास्ते में चलते हुए अचानक उनका सामना रॉयल बंगाल टाइगर से हो गया, लेकिन जतिन ने बिना समय गंवाए उसको अपनी खुखरी से मार डाला. उनके साहस और हिम्मत को देख कर बंगाल सरकार ने उन्हें सम्मानित किया.अंग्रेजी अखबारों में जमकर उनकी तारीफ़ हुई. उस दिन से लोग उन्हें ‘बाघा जतिन’ के नाम से पुकारने लगे.

Baghajatin

महान क्रांतिकारी थे ‘बाघा जतिन’

सुभाष चंद्र बोस से पहले रास बिहारी ने जतिन में ही असली नेता पाया था. रास बिहारी कहते थे कि ‘जतिन का ओहदा अंतर्राष्ट्रीय है. उसमें विश्व नेता बनने की क्षमता है.’

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एक और 1857 होने को था

फरवरी 1915 में इतिहास को दोहराया जा रहा था. फ़िर से एक कोशिश की जा रही थी. विद्रोह की अलग-अलग तारीखें तय कर दी गई थीं. लेकिन एक गद्दारी के चलते सारी मेहनत मिट्टी में मिल गई.

Uttarpradesh

और हम आज़ाद न हो सकें

उन दिनों जर्मनी के राजा भारत भ्रमण पर आए हुए थे. लोगों से छुप कर बाघा जतिन ने जर्मनी के राजा से मुलाकात की. उन्होंने हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिए हथियार देने की बात कही, जिसे सहर्ष स्वीकार कर लिया गया. सब कुछ भारत के पक्ष में था, तभी इस बात की भनक चेक जासूस इमेनुअल विक्टर वोस्का को लग गई. उसने ये ख़बर अमेरिका को दे दी, बाद में अमेरिका ने अंग्रेजी हुकूमत को बताया. इंग्लैण्ड से खबर भारतीय अधिकारियों के पास आई और उड़ीसा का पूरा समुद्र तट सील कर दिया गया.

Bhaga

और शहीद हो गए ‘राष्ट्रनेता बाघा जतिन’

9 सितंबर 1915 को राजमहंती नामक अधिकारी ने गांव वालों की मदद से उन्हें पकड़ने की कोशिश की, तो उन्होंने उसे मार दिया. तभी ख़बर पाकर अन्य अंग्रेजी अफ़सर भी आ गए. दोनों तरफ से गोलियां चलीं और इसी बीच उनके परम साथी चित्तप्रिय शहीद हो गए. वे खुद अन्य क्रांतिकारियों के साथ काफी देर तक गोलीबारी का सामना करते रहे. लेकिन अंत में गोलियों से छलनी हो चुका उनका शरीर जमीन पर गिर पड़ा.

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जब अंग्रेज़ अधिकारी उनके पास पहुंचा तो उन्होने कहा कि ‘गोली मैं और मेरा शहीद हो चुका साथी चित्तप्रिय ही चला रहे थे, बाकी तीन साथी निर्दोष हैं.‘ और…10 सितंबर 1915 को जीवन और मौत के बीच जूझते हुए बाघा जतिन ज़िंदगी की जंग हार गए.

कहने को तो इस देश में कई क्रांतिकारी पैदा हुए, लेकिन जतिन जैसा कोई न हो सका. हां… इस बात की कसक ज़रूर रहेगी कि हमने इस महान क्रांतिकारी को भुला दिया. कुछ क्रांतिकारियों को सत्ता ने खुद से चिपका लिया. राजनीति की वजह से ऐसे क्रांतिकारियों की इतिहास में मौत हुई. मुझे नहीं लगता है कि पश्चिम बंगाल और पड़ोसी देश बांग्लादेश के अलावा कोई और इस महान क्रांतिकारी के बारे में जानता भी होगा. एक सुखद बात ये है कि कोलकाता के विक्टोरिया मेमोरियल में इनकी एक मूर्ति ज़रूर रखी गई है. मेरी आप लोगों से बस एक ही गुजारिश है कि इस आर्टिकल को पढ़ने के बाद एक बार शेयर ज़रूर करें, जिससे ज्यादा लोगों को धरती के इस शेर के बारे में पता चल सके. शायद हम इसी बहाने इन्हें एक सच्ची श्रद्धांजलि दे सकें.

Story Inputs- Story Platter, Dainik Jagaran & Panchjanya

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