एक ज़माने का नेशनल बॉक्सिंग चैंपियन आज रिक्शा चलाने को है मजबूर, जानिए क्यों?

Abhay Sinha

मेहनत और मुक़ाम के बीच बंधी डोर कई बार क़िस्मत के भार से टूट जाती है. साथ ही, टूट जाता है वो सपना, जो कभी हमने अपनी हक़ीकत की बेड़ियों को तोड़ने के लिए देखा था. आज की कहानी एक ऐसे ही शख़्स के बारे में है, जो कभी नेशनल लेवल का बॉक्सर था, मग़र आज वो ही शख़्स एक किराए का ऑटो चलाने और मंडियों में बोझ उठाने का काम करने को मजबूर है.

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आबिद ख़ान. चंडीगढ़ से इंटर-यूनिवर्सिटी और नॉर्थ इंडिया बॉक्सिंग चैंपियन रहे. कभी वो एस.डी. कॉलेज चंडीगढ़ के छात्र थे और उन्होंने पंजाब यूनिवर्सिटी का प्रतिनिधित्व भी किया था. 1988-89 में उन्होंने नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ स्पोर्ट्स (NIS) पटियाला से बॉक्सिंग में एक कोचिंग डिप्लोमा किया, जिसके बाद उन्होंने पांच सालों तक सेना की टीमों को ट्रेनिंग देने का काम भी किया. हालांकि, इतना कुछ करने के बाद भी उन्हें उनकी क़ाबिलियत के मुताबिक़ कोई काम नहीं मिला.

 ‘एक ग़रीब और मिडिल क्लास शख़्स के लिए ग़रीबी एक अभिशाप है और उससे भी बड़ा अभिशाप खेल प्रेमी होना है. ये सिर्फ़ समय की बरबादी है. इतनी ख़्याति और डिप्लोमा होने के बावजूद मैं कभी एक अच्छी नौकरी नहीं पा सका.’

-आबिद ख़ान

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देश को बेहतरीन मुक्केबाज़ देने का सपना नहीं हो पाया पूरा

आज आबिद, बमुश्किल अपने लिए दो वक़्त की रोटी का इंतज़ाम कर पा रहे हैं. ज़िंदगी गुज़ारने के लिए वो एक किराए की ऑटो चलाते हैं. कुछ अतरिक्त आमदनी हो सके, इसके लिए वो मंडी में लोडिंग-अनलोडिंग का काम भी करते हैं.

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आबिद नम आंखों से अपने ज़िंदगी के संघर्ष के बारे में बताते हैं. वो कहते हैं कि ‘मुझे कोई अच्छी जॉब नहीं मिली. परिवार पालने के लिए आख़िरकार मुझे ये काम करना पड़ा. मेरी क़िस्मत सही नहीं थी या मेरे कनेक्शन या फिर मेरे प्रयास ठीक नहीं थे. मैं नहीं जानता, बस इतना जानता हूं कि मैं एक ढंग की नौकरी नहीं कर सका.’

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वो आगे कहते हैं कि ‘दुख तो होता है. एक सपना था कि डिप्लोमा करके मैं इसे ही अपना करियर बनाऊंगा. अच्छे से अच्छा बॉक्सर तैयार करूंगा. लेकिन ऐसा हो न सका. तकलीफ़ तो होती ही है.’

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एक तरफ़ बॉक्सिंग में करियर न बना पाने का दुख, दूसरी ओर लोगों की कड़वी बातों ने आबिद के दिल से स्पोर्ट्स को लेकर बची-कुची मोहब्बत भी ख़त्म कर दी. आज उनके दो बेटे हैं, जिन्हें वो कभी भी स्पोर्ट्समैन नहीं बनाना चाहते हैं.

‘मैं अपने ही कॉलेज के प्रिंसिपल के पास एक चपरासी की नौकरी मांगने गया था. उन्होंने मुझे पलटकर जवाब दिया कि मैं एक खिलाड़ी होकर सड़कों पर नौकरी की भीख मांग रहा हूं. इस जवाब के बाद मेरा दिल टूट गया. मैंने कसम खा ली कि मैं अपने बच्चों को स्पोर्ट्स में नहीं डालूंगा.’
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आबिद ख़ान की कहानी वाक़ई में रोंगटे खड़े कर देती है. एक ऐसा शख़्स जिसने देश के इतने बड़े इंस्टीट्यूट से डिप्लोमा किया. नेशनल लेवल पर बॉक्सिंग की. आर्मी के बॉक्सर्स को ट्रेनिंग दी. वो ही शख़्स आज 10 हज़ार रुपये महीना भी नहीं कमा पा रहा है. साथ ही ये देखना भी दुखद है कि इस देश में क्रिकेट के अलावा दूसरे खिलाड़ियों को उनकी मेहनत और जज़्बे का सही ईनाम नहीं मिलता. 

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