भारत में रिटायरमेंट के बाद खिलाड़ियों की दुर्गति से हर कोई वाक़िफ़ होगा. क्रिकेटरों को छोड़ दें तो बाकी सभी खिलाड़ी रिटायरमेंट के बाद मुफ़लिसी की ज़िंदगी जीने को मजबूर है. कोई गोलगप्पे बेचकर तो कोई अपने मेडल बेचकर दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ करने को मजबूर है. रिटायरमेंट के बाद इन खिलाड़ियों को सरकार की तरफ़ से किसी भी प्रकार की आर्थिक सहायता भी नहीं मिलती है. हालांकि, पिछले कुछ सालों में केवल उन्हीं खिलाड़ियों को सरकारी विभागों में नौकरी दी जा रही है जो बड़ी प्रतियोगिताओं में मेडल जीतकर आ रहे हैं. बाकी खिलाड़ियों की सुध लेने वाला कोई नहीं है.
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आज हम आपको भारत के कुछ ऐसे ही खिलाड़ियों के बारे में बताने जा रहे हैं, जिन्होंने ओलंपिक से लेकर कॉमनवेल्थ गेम्स तक हर जगह भारत का नाम रौशन किया. बावजूद इसके इन खिलाड़ियों की ज़िंदगी बेहद मुश्किलों में गुजरी. किसी के पास इलाज के लिए पैसे नहीं थे, तो किसी ने मेडल बेचकर एक वक़्त का भोजन खाया.
चलिए जानते हैं वो कौन-कौन से होनहार, लेकिन बदनसीब खिलाड़ी थे?
1- के.डी. जाधव
खशाबा दादासाहेब जाधव ओलंपिक में भारत को पहला व्यक्तिगत मेडल दिलाने वाले एथलीट हैं. जाधव ने 1952 के हेलसिंकी ओलंपिक के दौरान फ़्रीस्टाइल रेसलिंग के 57 किग्रा भार वर्ग में भारत को ब्रोंज़ मेडल दिलाया था. आज़ाद भारत के पहले पदक विजेता के.डी. जाधव ये उपलब्धि हासिल करने के बावजूद सरकार की ओर से किसी भी तरह की पेंशन से वंचित रहे. ज़िंदगी के आख़िरी क्षणों में ग़रीबी और ग़ुरबत में ही उनका निधन हो गया.
2- मेजर ध्यानचंद
वर्ल्ड हॉकी के बेताज बादशाह मेजर ध्यानचंद के जन्मदिन को भारत में ‘राष्ट्रीय खेल दिवस’ के रूप में मनाया जाता है. इससे आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि ध्यानचंद कितने बड़े खिलाड़ी थे. उन्होंने अपने अंतरराष्ट्रीय करियर में 400 से अधिक गोल किए हैं. देश को हॉकी में कई गोल्ड मेडल दिलवाने वाले हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद के जीवन के अंतिम वर्ष भी ग़रीबी में ही बीते.
3- माखन सिंह
माखन सिंह एकमात्र भारतीय एथलीट हैं जिन्होंने 400 मीटर की दौड़ में मिल्खा सिंह को हराया था. माखन 1964 के ‘टोक्यो ओलंपिक’ में भारतीय पुरुषों की 4×400 मीटर रिले और 4×100 मीटर रिले टीम का हिस्सा थे, लेकिन एक्सीडेंट में उनका पैर टूट गया. इलाज़ के लिए इतने भी पैसे नहीं थे कि दोनों पैरों पर खड़ा हो सकें. इनका आख़िरी वक़्त भी बेहद ग़रीबी में बीता.
4- पान सिंह तोमर
पान सिंह तोमर 7 बार के नेशनल स्टीपलचेज़ चैंपियनशिप के विजेता रहे थे. इसके अलावा उन्होंने 1958 में टोक्यो में आयोजित एशियाई खेलों में भारतीय का प्रतिनिधित्व भी किया था. 9 मिनट 2 सेकंड में 3000 मीटर स्टीपलचेज़ स्पर्धा का उनका राष्ट्रीय रिकॉर्ड 10 साल तक अटूट रहा था. डकैत बनने के लिए उन्हें अपना खेल करियर छोड़ना पड़ा और इंस्पेक्टर महेंद्र प्रताप सिंह ने उन्हें गोली मार दी थी.
5- शंकर लक्ष्मण
भारतीय हॉकी खिलाड़ी शंकर लक्ष्मण 1956 के ‘मेलबॉर्न ओलंपिक’ और 1958 के ‘एशियन गेम्स’ में स्वर्ण विजेता भारतीय हॉकी पुरुष टीम के सदस्य थे. लक्ष्मण ने भारत के लिए 3 सफ़ल ओलंपिक फ़ाइनल भी खेले, लेकिन इन तमाम उपलब्धियों के बावजूद गैंगरीन से पीड़ित शंकर लक्ष्मण की ग़रीबी के कारण 73 साल की उम्र में निधन हो गया था.
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6- मो. यूसुफ़ ख़ान
‘दाढ़ी वाले घोड़े’ के रूप में मशहूर मो. यूसुफ़ ख़ान भारत के अब तक के सर्वश्रेष्ठ फ़ुटबॉल खिलाड़ियों में से एक हैं. साल 1962 के एशियाई खेलों के दौरान, उनका योगदान अतुलनीय था. इसीलिए 1966 में उन्हें ‘अर्जुन पुरस्कार’ से नवाजा भी गया था. ज़िंदगी के आख़िरी कुछ साल उनके लिए बेहद दर्दनाक साबित हुए. वो Parkinson’s नामक रोग से पीड़ित थे और इलाज़ के अभाव में उनका निधन हो गया था.
7- सरवन सिंह
सरवन सिंह ने 1954 के ‘एशियाई खेलों’ के दौरान 110 मीटर बाधा दौड़ में भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व किया था. इस दौरान उन्होंने 14.7 सेकेंड में 110 मीटर की दूरी तय कर भारत को गोल्ड मेडल दिलाया था. इन उपलब्धियों के बावजूद उनकी ज़िंदगी ग़रीबी में बीते. ग़रीबी के चलते उन्हें अपने मेडल बेचकर अपना गुज़ारा पड़ा था.
8- बीर बहादुर
भारतीय फ़ुटबॉल जगत में ‘फ़ॉरवर्ड चीता‘ के नाम से मशहूर पूर्व फ़ुटबॉलर बीर बहादुर उस भारतीय टीम का हिस्सा थे जो नेशनल फ़ुटबॉल चैंपियनशिप में दो बार उपविजेता रही थी. रिटायरमेंट के बाद बीर बहादुर को जीवन यापन के लिए उन्हें हैदराबाद में चाट और पानी पूरी बेचनी पड़ी.
9- मारिया इरुदयाम
अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित मारिया इरुदयाम ये पुरस्कार हासिल करने वाले देश की एकमात्र ‘कैरम’ खिलाड़ी हैं. मारिया को कैरम के सचिन तेंदुलकर के नाम से भी जाना जाता था. उन्होंने 1981 में स्टेट चैंपियनशिप जीती और 1982 में नेशनल चैंपियनशिप जीती थी. सन 1995 में फिर वो एक बार फिर नेशनल चैंपियन बने थे. इतने टैलेंटेड और क़ाबिल होने के बावजूद हुए भी इरुदयाम आज बेहद साधारण ज़िंदगी जी रहे हैं.
10- सीता साहू
भारतीय पैरालिंपिक खिलाड़ी सीता साहू 2011 के ‘एथेंस ओलंपिक’ के दौरान पदक विजेता रही. मूल रूप से मध्य प्रदेश की रहने वाली सीता को आज आर्थिक तंगी के कारण जीवन यापन के लिए चाट और गोलगप्पे बेचने पड़ रहे हैं. यही सीता की आय का एकमात्र स्रोत भी है. सीता साहू के पति भी शारीरिक रूप से दिव्यांग हैं.
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