सचिन से लेकर धोनी तक. आखिर क्यों स्टार प्लेयर्स की ख़राब फ़ॉर्म की आलोचना झेल नहीं पाते हैं हम?

Vishu

2007-08 का दौर. भारत ऑस्ट्रेलिया टेस्ट सीरीज़. ब्रेट ली 150 मील प्रति घंटे की रफ़्तार से गेंद फ़ेंक रहे हैं. क्रीज़ पर वीवीएस लक्ष्मण मौजूद. बल्ले का किनारा लगता है और एक दुर्लभ क्षण में विकेटकीपर गिलक्रिस्ट कैच छोड़ देते हैं.

इसके बाद प्रेस कॉन्फ़्रेंस में गिली का बयान –

जब मैंने लक्ष्मण का कैच छोड़ा, मुझे एहसास हुआ कि मैं बॉल की तरफ़ तेजी से मूव नहीं कर पाया था. मैंने 10 मिनट और सोचा, उस सीरीज़ के दौरान छूटा कैच मुझे परेशान कर रहा था. मैं काफ़ी मेहनत कर रहा था और ट्रेनिंग भी अच्छी चल रही थी लेकिन मेरे अंदर से ऑस्ट्रेलियन टीम के स्तर पर मेहनत करने की आग कम हो रही थी. मैंने शाम को अपनी पत्नी से बात की और सन्यास लेने का फ़ैसला ले लिया.’

सिर्फ़ एक कैच ड्रॉप और ऑस्ट्रेलिया का सबसे महान विकेटकीपर सन्यास लेने को तैयार था.

रिकी पॉन्टिंग भी जब अपने करियर के आखिरी दौर में ख़राब फ़ॉर्म से गुज़र रहे थे, तो ऑस्ट्रेलियन बोर्ड ने उन्हें सख़्त फ़ैसला लेने को कहा था, आखिरकार पॉन्टिंग ने भी Gloves टांग दिए थे.

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ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट की सबसे बड़ी ख़ासियतों में एक चीज़ है, सीनियर और आइकॉनिक खिलाड़ियों के संन्यास को अच्छे से हैंडल करना. शायद यहीं पर भारतीय क्रिकेट मात खा जाता है.

कपिल देव से लेकर सचिन तेंदुलकर और अब एम. एस. धोनी तक, जब-जब टीम का स्टार खिलाड़ी अपने करियर के आखिरी दौर में पहुंचता है, भारतीय टीम के सिलेक्शन में साफ़गोई और ईमानदारी की कहीं न कहीं कमी झलकती है.

भारतीय टीम के पहले सेलेब्रिटी सितारे कपिल देव जब अपने करियर के आखिरी दौर में थे, तो उन्होंने अपनी आखिरी 25 पारियों में महज़ 26 विकेट झटके थे. इसे किसी भी तरह से विश्वस्तर प्रदर्शन नहीं कहा जाएगा और इससे कहीं न कहीं युवा और टैलेंटेड जवागल श्रीनाथ को भी कई साल इंतज़ार करना पड़ा. सचिन तेंदुलकर की आखिरी 24 पारियों में महज 27 की औसत थी लेकिन उनके फ़ॉर्म के बारे में बात करना तो दूर, उनके भविष्य को लेकर अटकलें लगाना भी ‘गुनाह’ समझा जाता था.

लेकिन इससे नुकसान भारतीय क्रिकेट का ही है. भारत में अगर कोई खिलाड़ी गॉड स्टेटस हासिल कर लेता है तो उसके बारे में केवल अच्छी बातें ही सहन की जाती हैं और किसी भी नेगेटिव प्रतिक्रिया का जमकर विरोध होता है.

इसमें कोई दो राय नहीं कि किसी भी खिलाड़ी का ओहदा या स्टार पावर, टीम के सेलेक्शन में आड़े नहीं आना चाहिए. गांगुली, सहवाग जैसे कई स्टार खिलाड़ियों की फ़ेहरिस्त मौजूद है जिन्हें अपने करियर के अंतिम दौर में एक अदद शानदार फ़ेयरवेल की तलाश थी, जिसके चलते उन्होंने अपने करियर को काफ़ी खींचा.

लेकिन ये शायद हमारे डीएनए में ही है. क्रिकेट सितारों को भगवान सरीखा दर्जा दे देना और उनके खिलाफ़ उठती किसी भी आवाज़ का पुरजोर विरोध यही साबित भी करता है. मसलन हाल ही में जब अजीत अगरकर ने धोनी के सन्यास को लेकर अपनी राय रखी, तो उन्हें न सिर्फ़ फ़ैंस का आक्रोश झेलना पड़ा, बल्कि इंडियन टीम के Mentor रवि शास्त्री ने उन्हें अपने करियर पर निगाह डालने की सलाह दे डाली.

धोनी ने पिछले 25 वन डे मैचों में 56 की औसत से रन बनाए हैं, जिसे बढ़िया प्रदर्शन माना जाएगा लेकिन अगर उनके करियर की गहरे तौर पर जांच पड़ताल की जाए, तो साफ़ हो जाएगा कि अब धोनी उस स्तर के मैच विनर नहीं रह गए है. पहले जहां वे अपनी मर्ज़ी से 4 गेंदों पर 4 छक्के लगाने का माद्दा रखते थे, वहीं आज उस क्षमता में कमी देखी जा सकती है. उन्हें मैच जिताने के लिए दूसरे खिलाड़ियों की ज़रूरत महसूस होती है, हालांकि कप्तान कोहली उन्हें आज भी क्रिकेट के सबसे शातिर दिमाग में से एक मानते हैं.  

देखा जाए तो धोनी आज भी फ़िट हैं और उनकी उम्र उनके फ़ॉर्म के बिल्कुल आड़े नहीं आनी चाहिए, लेकिन अगर कोई युवा, धोनी की करेंट फॉर्म से बेहतर प्रदर्शन कर पा रहा है, तो ये एक ऐसा मसला है जिस पर भावनाएं आहत किए बिना बातचीत और बहस की गुंजाइश होनी ही चाहिए क्योंकि कोई भी खिलाड़ी कभी भी खेल से बड़ा नहीं हो सकता.  

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