मुज़फ़्फ़रनगर की शालू सैनी, जिनके जीवन का लक्ष्य बन चुका है लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार

Kratika Nigam

Shalu Saini Cremates Unclaimed Dead Bodies: हिंदू मान्यताओं के अनुसार, लड़कियों को अंतिम संस्कार के समय शमशान घाट पर जाने की अनुमति नहीं होती है. हालांकि, कई लड़कियां या महिलाएं इस सोच से आगे निकल चुकी हैं. जहां एक ओर लड़कियां अंतिम संस्कार करने लग गई हैं वहीं दूसरी तरफ़ 37 वर्षीय शालू सैनी (Shalu Saini) हैं, जो कोरोना के समय से लावारिश लोगों के शवों को अपना समझकर अंतिम संस्कार कर रही थीं. (Shalu Saini Cremates Unclaimed Dead Bodies).

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चलिए, शालू सैनी के बारे में जानते हैं कि आख़िर उन्हें कैसे ये काम करने का ख़्याल आया?

मुज़फ़्फ़रनगर की शालू सैनी पिछले 15 सालों से समाज सेवा कर रही हैं. शालू महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने और आत्मरक्षा सिखाने के लिए कैंप का भी आयोजन करती रहती हैं. इनका साक्षी वेलफ़ेयर ट्रस्ट नाम से एक NGO है. शालू को मुजफ़्फ़रनगर के हर एक थाने और प्रशासनिक अधिकारी जानते हैं.

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द बेटर इंडिया के अनुसार, शालू शादी से पहले उत्तरप्रदेश के गढ़ मुक्तेश्वर में रहती थीं, शादी के बाद पति के घर मुजफ़्फ़नगर आ गईं, लेकिन पति से तालमेल न मिलने के चलते उन्होंने अलग होने का फ़ैसला लिया. शालू के दो बच्चे हैं, जिनकी परवरिश वो ही करती हैं.

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TOI से बात करते हुए शालू ने बताया,

वो एक बुज़ुर्ग थे, जो अपने परिजनों का अंतिम संस्कार या तो पैसे की वजह से नहीं कर पा रहे थे या इतना उग्र माहौल देखकर डर रहे थे. घंटों तक शरीर खुले में पड़ा रहा क्योंकि लचर स्वास्थ्य सुविधाओं के चलते पूरा दिन बीत जाता था. इसलिए फिर मैं ख़ुद को रोक नहीं पाई और इन लावारिश शवों के लिए आगे आई. मैंने बुरे हालातों के चलते इस काम को शुरू किया था, लेकिन अब ये मेरी ज़िंदगी का हिस्सा बन चुका है.

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शालू साल 2020 से अब तक 500 से ज़्यादा पराये लोगों का अंतिम संस्कार कर चुकी हैं, जिनमें से कुछ ऐसे लोगों के अपनों का शव था, आर्थिक तंगी से जूझ रहे थे. इसके अलावा, कुछ शव ऐसे थे, जिनके अपनों का ही कुछ पता नहीं था. शालू के इस नेक कदम के चलते उनका नाम इंडिया बुक ऑफ़ रिकॉर्ड (India Book Of Record) में दर्ज किया गया है. 

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शालू कहती हैं,

अंतिम संस्कार करने की फ़ीस बहुत ज़्यादा ली जाती है, जो साल 2020 में 5000 रुपये तक पहुंच गई थी. इसी के चलते कई परिवार परेशान हो रहे थे क्योंकि उस समय कोरोना चरम पर था. लॉकडाउन लगा था लोगों के पास जॉब नहीं थी. साथ ही लकड़ियां भी कम थीं. मैंने पहला अंतिम संस्कार एक सिंगल मां का किया था, जिसके दो बेटे थे.

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आगे बताया,

जैसे-जैसे कोविड कम होता गया लोगों ने शव का अंतिम संस्कार कराने के लिए मुझे टिप देना शुरू किया. हालांकि, एक शव का अंतिम संस्कार कराने के अब 4000 रुपये लिए जाते हैं, देखा जाए तो ये भी ज़्यादा हैं.

लोगों को जब शालू के नेक काम के बारे में पता चला तो उन्होंने इनकी मदद करना शुरू किया. आज वो ग़रीबों की मसीहा बन चुकी हैं. इस पर उनका कहना है,

मुझे अब अंतिम संस्कार के लिए पुलिस स्टेशन, मुर्दाघर और स्लम एरिया से कॉल्स आते हैं. ये मेरे लिए आध्यात्म जैसा है जो मुझे सीधे भगवान से जोड़ता है.

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शालू कहती हैं,

कोरोना के समय लोग अपनों का अंतिम संस्कार करने नहीं जा रहे थे और अगर अंतिम संस्कार कर दिया तो अस्थियां लेने में डर रहे थे ऐसे में मैंने कई लोगों की अस्थियां ख़ुद विसर्जित कीं. इसके बाद मैंने अपने फ़ोन नम्बर के साथ अंतिम संस्कार करने का विज्ञापन दिया फिर मुझे हर दिन ढेरों फ़ोन आने लगे.

शालू को अंतिम संस्कार करते देख लोग उन्हें ताने मारते हुए कहते थे कि, देखना मरेगी. लेकिन अच्छी बात ये रही कि शालू कोरोना की चपेट में नहीं आई.

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शालू ने अपने साक्षी वेलफ़ेयर ट्रस्ट की शुरुआत के बारे में कहा कि,

मैंने अपने जीवन के संघर्षों से सीखते हुए अन्य महिलाओं को सहारा और साथ देने के बारे में सोचा. मैं चाहती हूं कि हर महिला आत्मनिर्भर बने और अपनी रक्षा स्वयं करे. इसलिए मैं वोकेशनल ट्रेनिंग दिलवाती हूं साथ ही रोज़गार का भी बंदोबस्त करती हूं.

शालू ख़ुद भी छोटे से ठेले पर कपड़े बेचने का काम करती थीं फिर भी वो ज़रूरतमंद महिलाओं के लिए आगे आईं और 6 साल पहले NGO की शुरुआत करी, जिससे उन्हें ज़्यादा आर्थिक मदद मिलने लगी.

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शालू की हिम्मत को सलाम करना चाहिए जो मानवता के लिए नेक काम कर रही हैं.

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