एसिड अटैक सर्वाइवर की ये कहानी आपको विचलित करने के साथ ही बहुत सारी हिम्मत देगी

Sanchita Pathak

ज़िन्दगी हर मोड़ पर कोई न कोई इम्तिहान लेती है. कई बार इम्तिहान यूं निकल जाते हैं और ख़ुशियां दस्तक दे जाती हैं, पर कई बार ग़म के बादल नहीं छंटते. ज़िन्दगी के कुछ इम्तिहान ऐसे होते हैं जिनके निशान ताउम्र रह जाते हैं. 

मुश्किल हालातों में उठ खड़ा होना कठिन है और बहुत कम लोग ही इतनी हिम्मत जुटा पाते हैं.  

Humans of Bombay ने शेयर की हर इम्तिहान का सामना करने वाली ज़किरा की कहानी.  

17 की उम्र में मेरी 24 की उम्र के व्यक्ति से शादी हुई. पहले दिन से ही मेरे और मेरी पति के बीच नहीं पटी- मुझे समझ आ गया था कि मुझे अपना ख़्याल ख़ुद ही रखना होगा. मैंने एक छोटा सा बिज़नेस शुरू किया और अच्छी कमाई करने लगी. मेरे पति ऑटो ड्राइवर थे, पर उसकी उतनी कमाई नहीं थी. वो सिर्फ़ पैसे छीनता और मर्दों को घर बुलाकर देर रात तक पीता था. वो मुझसे कहता कि अगर मैं उसके रास्ते आई तो मुझे जान से मार देगा. मेरी मां मुझे घर नहीं आने देती थी क्योंकि इस वजह से मेरी बाक़ी बहनों की शादी नहीं हो पाएगी. कुछ महीनों बाद मैंने एक बेटी को जन्म दिया. एक बार बच्ची बहुत रो रही थी, तो उसने कूड़ा फेंकने की पन्नी में उसे बांधा और फेंक आने के लिए तैयार हो गया. मैंने पुलिस बुलाने की धमकी दी तब वो रुका.

Humans of Bombay

दूसरी बेटी के पैदा होने के बाद वो और बद्तर हो गया. एक रात उसने कहा,’तुम इतना इसीलिए इतराती हो न क्योंकि तुम अच्छा-ख़ासा कमाती हो, एक दिन मैं तुम्हारा वो हाल करूंगा कि तुम्हें घर से बाहर निकलने में भी शर्म आए.‘ मैं मदद की गुहार लगाते हुए अपनी मां के पास पहुंची. उसने मुझे वापस घर लौटने को कह दिया.


मेरा पास कोई चारा नहीं था और मजबूरन मैं उसके पास गई. उस रात जब मैं सो रही थी उसने मेरे चेहरे पर एसिड डाल दिया. मैं उठी तो ऐसा लगा मानो मैं आग से जल रही हूं. पड़ोसी मुझे अस्पताल ले गए पर जो बिगड़ना था बिगड़ चुका था.  

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मैं 4 महीनों तक अस्पताल में रही, मेरे किसी भी परिवारवाले ने मेरी मदद नहीं की. Acid Survivors Saahas Foundation ने मेरा इलाज कराया.


मैंने शिकायत की और मेरे पति को जेल हुई, पर हर रोज़ मुझे ख़ुद को ख़त्म करने की इच्छा होती. मेरी बेटियां मेरे पास नहीं आती थी, लोग मुझे अपने यहां आने देना तो दूर की बात, बातचीत तक नहीं करते थे- सिर्फ़ मेरी सूरत की वजह से. जब मुझे अस्पताल से डिस्चार्ज किया गया तो NGO ने मेरी मदद की और मेरे बच्चों का बोर्डिंग स्कूल में दाख़िला करवाया- क्योंकि मैं उन्हें अपने पास नहीं रख सकती थी.  

मेरे पति और मेरे परिवार ने वही किया जो वो करना चाहते थे-मेरी ज़िन्दगी बर्बाद कर दी. पर वे मुझे नहीं तोड़ पाए. मैं बिना स्कार्फ़ के बाहर नहीं निकल सकती, मुझे रहने के लिए या काम करने की जगह नहीं मिल रही है. मैं अकेले ही ये लड़ाई लड़ रही हूं. पर ये अंत नहीं है. मैं हमेशा से कुछ बड़ा करना चाहती थी और मैं अभी भी उसी कोशिश में लगी हूं. फ़र्क बस इतना है कि अब मुझ पर दाग़ हैं जो मुझे हमेशा याद दिलाते हैं कि हार नहीं माननी है. ‘ 

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ज़किरा की कहानी सुनकर आपको कैसा लगा, कमेंट बॉक्स में बताएं. 

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