90 का दशक आधुनिक भारत की कहानी में एक Turning Point है. आज अपने आस-पास जो भी हम देखते हैं, उसकी आधारशिला कहीं न कहीं 90’s में रखी गयी थी. अभी देश में जिनकी संख्या ज़्यादा हैं यानी युवा, उनमें से ज़्यादातर 90’s की पैदाईश हैं. और उस दौर में बड़े होना एक बिल्कुल अलग अनुभव था.

इसी सवाल को जब किसी ने Quora पर पूछा तो एक से बढ़कर एक जवाब सामने आये. पेश हैं नब्बे के दशक में बड़ी होने वाली पीढ़ी की यादों का पुलिंदा:

1. लैंडलाइन फ़ोन और PCO का ज़माना 

90s में लोग कहीं आते-जाते जेब से फ़ोन निकाल कर बात नहीं कर सकते थे. घर पर लैंडलाइन फ़ोन होता था और बाहर से फ़ोन करने के लिए PCO. अनलिमिटेड नहीं, बल्कि हर मिनट का पैसा लगता था. और फ़ोन कॉल्स का इंतज़ार किया जाता था.

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2. टीवी बूम 

इसी दौर में टीवी ने आम भारतीय घरों में एंट्री मारी. लोगों ने रामायण, महाभारत, शक्तिमान जैसे धारावाहिक ख़ूब देखे. टीवी पर प्राइवेट चैनल्स की भी एंट्री हुई. MTV जैसे म्यूज़िक चैनल्स और हमेशा सिनेमा दिखाने वाले चैनल्स ने लोगों का ख़ूब मनोरंजन किया. लोग अब टीवी पर लाइव क्रिकेट मैच भी देख सकते थे. 

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3. बॉलीवुड में ‘खान’ का जलवा  

90s ही वो दौर था जब सलमान खान, शाहरुख खान और आमिर खान ने एक से बढ़ एक फ़िल्में दी और नई पीढ़ी के पसंदीदा हीरो बन गए. बॉलीवुड का प्रचार-प्रसार भी ख़ूब हुआ और हिंदी फ़िल्में दुनिया के अलग-अलग देशों तक पहुंचने लगी.

Film Companion

4. ब्यूटी कॉन्टेस्ट में भारत का जलवा 

सुष्मिता सेन 1994 में मिस यूनिवर्स का ताज अपने नाम किया तो वहीं मिस वर्ल्ड का ताज पहनकर ऐश्वर्या रायने भारत में धूम मचा दी.

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5. क्रिकेट को लेकर दीवानगी 

90’s में भारतीय क्रिकेट ने एक नया सूर्योदय देखा. एकदिवसीय मैच के फ़ॉरमेट में लोगों को ख़ूब मज़ा आने लगा और उसपर से उसे टीवी पर देखना भी संभव हो गया. मैच के दिन टीवी के आस-पास लोगों की भीड़ न जमा हो, ऐसा तो हो ही नहीं सकता था. सचिन, गांगुली और द्रविड़ लोगों के बीच ख़ासे मशहूर हो चुके थे. क्रिकेट अब हमेशा के लिए बदल चुका था.

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6. विदेशी कंपनियों और प्रोडक्ट्स की भारत में एंट्री

1991 में उस वक़्त के वित्त मंत्री मनमोहन सिंह से भारतीय बाज़ार को विदेशी कंपनियों के लिए खोल दिया. इसी के साथ विदेशी कंपनियों का देश में आगमन हुआ. नए-नए प्रोडक्ट्स के प्रचार से टीवी और बाज़ार भर गए. लोगों को ‘ठंडा मतलब कोका कोला’ ने इतना लुभाया कि कोल्ड ड्रिंक्स गांव-गांव तक पहुंचने लगीं.

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7. साधारण लेकिन काम का समाचार

नब्बे के दशक में प्राइवेट न्यूज़ चैनल्स का उत्पात नहीं शुरू हुआ था. एंकर सभ्य लोगों की तरह समाचार पढ़ते थे. डिबेट के नाम पर मुर्गा लड़ाई जैसे कारनामे से दूर की कौड़ी थे. न्यूज़ TRP की रेस जीतने का नाम नहीं था.

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8. म्यूज़िक एलबम्स लाकर नए गायकों और संगीतकारों ने मचा दिया धमाल

90s के दौर में भारतीय म्यूज़िक इंडस्ट्री में भी आमूल-चूल परिवर्तन हुए. नए-नए प्रयोगों को फ़िल्मों से इतर म्यूज़िक एलबम्स के रूप में रिलीज़ किया गया. पॉप म्यूज़िक, रैप, रीमिक्स, फ्यूज़न, गज़ल आदि सब ने लोगों को अपने टेस्ट का म्यूज़िक सुनने में मदद की. वॉकमैन की जलवा था और CD प्लेयर्स ने भी मार्केट में एंट्री ले ली थी.       

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9. WWF सबको लगता था असली

टीवी पर WWF के मैच को देखने से लेकर कार्ड कलेक्ट करने का बच्चों के ऊपर ख़ुमार चढ़ा रहता था. सबको लगता था कि रिंग में जो भी हो रहा है वो सच में होता है. कसम से बहुत उल्लू बनाया था इन लोगों ने!

10. कंप्यूटर का आगमन

90 के दशक में ही कंप्यूटर का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल शुरू हुआ था. उस वक़्त ये सबसे नई तकनीक थी. स्कूल में बच्चे AC रूम में लगे कंप्यूटर क्लास में जूते उतार कर जाते थे. कंप्यूटर नई और अनोखी चीज़ हुआ करती थी.

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11. सड़कों पर दिखती थी Ambassdor ही Ambassdor

भले ही 90s में भारतीय बाज़ार विदेशी कंपनियों के लिए खोल दिया गया था, मगर फ़िर भी कारों के मामले में मारुती 800 और Ambassdor का ही बोल बाला था. प्रीमियर पद्मिनी और The Fiat भी सड़कों पर दिख जाते थे.

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12. फ़ूटवियर के मामले में Bata और Liberty का था बोल बाला. 

उस दौर में Nike, Reebok, Adidas, Puma आदि के जूते-चप्पल शायद ही कहीं मिलते थे. Bata और Liberty की दुकानें जगह-जगह पर थी और लोगों का इन पर ज़बरदस्त भरोसा था.

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13. सोशल मीडिया नहीं कॉमिक्स, नंदन और दूसरे मैगज़ीन्स थे बच्चों के पसंदीदा टाइम पास 

दुनिया में क्या चल रहा है, इसके लिए लोग न्यूज़पेपर और मैगज़ीन पढ़ते थे. वहीं कॉमिक्स पढ़ने में बच्चों का मन सबसे ज़्यादा लगता था. नंदन, चंपक, बाल हंस, आविष्कार, विज्ञान प्रगति आदि मैगज़ीन भी सब चाव से पढ़ते थे.  

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14. वीडियो गेम खेलने का मतलब कुछ और हुआ करता था. 

90’s में वीडियो गेम खेलने का मतलब हुआ करता था एक छोटे से कंसोल पर Ping-Pong जैसा कुछ खेलना. उस वक़्त ये बेहद मशहूर हुआ करते थे. इस छोटे से कंसोल में बैटरी लगती थी. आज के स्टैंडर्ड से देखें तो ये कंसोल बाबा-आदम के ज़माने के लगते हैं, जिनका एक ही ठिकाना बचा है- म्यूज़ियम.

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15. 25 पैसे और 50 पैसे काम के थे.

आज भले ही कोई 1 रुपये को ज़्यादा तवज्जों नहीं देता हो, मगर उस वक़्त 1 रुपया मायने रखता था. यहां तक कि 25 पैसे में भी छोटी-मोटी चीज़ें मिल जाया करती थीं.

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