भारत की आज़ादी को अभी 3 महीने भी नहीं हुए थे कि पाकिस्तान ने कश्मीर के कबायलियों को भड़का कर भारत के हिस्से में असलहे-बारूद के साथ भेज युद्ध छेड़ दिया था. 1947 के इस युद्ध में हम जीते तो एक भारतीय रणबांकुरे के कारण जिन्हें लोग नौशेरा के शेर के नाम से जानते हैं.   

ये वो वही ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान थे जिसे पाकिस्तान ने विभाजन के बाद सेना अध्यक्ष बनाने का लालच देकर भारत छोड़ने को कहा था. मगर ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान ने भारत को चुना और युद्ध में पाक के ख़िलाफ़ लड़ उसे शिकस्त दी. चलिए जानते हैं इस भारतीय वीर सैनिक की कहानी जिसने प्राण न्यौछावर कर की देश की रक्षा. 

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पिता बनाना चाहते थे पुलिस ऑफ़िसर

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ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान(Brigadier Mohammad Usman) यूपी के मऊ ज़िले के बीबीपुर गांव के रहने वाले थे. उनके पिता मोहम्मद फ़ारूक पुलिस ऑफ़िसर थे. बचपन में उस्मान तुतलाते थे इसलिए वो चाहते थे कि उनके बेटे सिविल सर्विस में न जाकर पुलिस ऑफ़िर बनें. पर ऐसा हो न सका क्योंकि ब्रिगेडियर उस्मान को तो आर्मी जॉइन करनी थी. 

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सैम मानेकशॉ थे इनके बैचमेट

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मोहम्मद उस्मान ने रॉयल मिलिट्री अकेडमी सैंडहर्स्ट के लिए आवेदन किया और सेलेक्ट हुए. 1934 को वो सैंडहर्स्ट से पास होकर वापस आए थे. उनके साथ पास होने वाले 10 भारतीय थे जिनमें से एक सैम मानेकशॉ थे जो आगे चलकर भारत की सेना के चीफ़ बने. आर्मी में आने के बाद उन्होंने अंग्रेज़ों के लिए बर्मा में 1944 में द्वितीय विश्व युद्ध लड़ा. युद्ध के समाप्त होने के बाद भारत की आज़ादी और बंटवारे दोनों की ख़बर आई. तो उन्होंने भारत को चुना. 

पाकिस्तान ने किया हमला

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भारतीय सेना में उन्हें डोगरा रेजिमेंट की कमान दी गई. 1947 में पाकिस्तान ने कश्मीर पर कब्ज़ा करने के नापाक इरादे से उस पर कबायलियों का हमला करवा दिया. उस वक़्त 50 पैरा ब्रिगेड के कमांडर थे मोहम्मद उस्मान जो नौशेरा में डटे हुए थे. भारतीय सेना के अधिकारियों ने उन्हें कबायलियों को खदेड़ने का ऑर्डर दिया. वो अपने चंद सैनिकों के साथ उनके साथ भिड़ गए. 

पाक सेना ने रखा था 50,000 रुपये का इनाम 

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कबायलियों ने नौशेरा के आस-पास के इलाके पर फ़तेह हासिल कर ली थी, मगर वो नौशेरा पर जीत न हासिल कर सके. उन्होंने इस पर कई बार हमले किए मगर हर बार मोहम्मद उस्मान और उनके सैनिक इसे नाकामयाब कर देते थे. इससे चिढ़कर पाकिस्तानी सेना ने उन्हें मारने वाले पर 50,000 रुपये का इनाम तक रख दिया था. फरवरी 1948 को लेफ़्टिनेंट जनरल करियप्पा ने उनको कोट पर कब्ज़ा करने का आदेश दिया. उन्होंने इसे भी स्वीकार किया और अपने सैनिकों के शौर्य के दम पर उसे भी हासिल किया. 

जीतने तक पलंग पर न सोने की खाई थी कसम

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अब ब्रिगेडियर उस्मान को मेजर जनरल कलवंत सिह ने झंगड़ पर फिर से कब्ज़ा करने का ऑर्डर दिया. उन्होंने अपने सैनिकों से इस बारे में बात की और कहा कि जब क वो झंगड़ पर फ़तेह नहीं हासिल कर लेते तब तक पलंग पर नहीं सोएंगे. 14 मार्च 1948 को उन्होंने झंगड़ पर चढ़ाई की और 18 तक उसे जीत भी लिया. इसके बाद पड़ोस के गांव से एक पलंग अरेंज किया गया जिस पर ब्रिगेडियर उस्मान सोए थे. 

महावीर चक्र से हुए थे सम्मानित 

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झंगड़ को फिर से हासिल करने के इरादे से कबायलियों ने भारतीय सेना पर फिर से हमला किया. जुलाई 1948 में कबायलियों ने भारी गोलीबारी की. ब्रिगेड के मुख्यालय पर गोले दागे. इनमें से एक गोला पत्थर पर जाल लगा और उसके टुकड़े की चपेट में आकर ब्रिगेडियर उस्मान बुरी तरह घायल हो गए. कुछ समय पश्चात वो वीरगति को प्राप्त हो गए. वो 1947 की जंग में शहीद होने वाले सबसे वरिष्ठ सेना अधिकारी थी. 

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उनके जनाजे में पूर्व पीएम जवाहर लाल नेहरू भी शामिल हुए थे. उनकी कब्र दिल्ली के जेएनयू विश्वविद्यालय के परिसर में हैं. ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान को मरणोपरांत सेना के दूसरे सर्वोच्च सम्मान महावीर चक्र से सम्मानित किया गया था.