Success Story of Oberoi Hotel Group: भारत में ‘ओबेरॉय ग्रुप’ का नाम ही काफ़ी है. ये भारत का दूसरा सबसे बड़ा होटल और रिसोर्ट ग्रुप है. इस ग्रुप के भारत समेत मिस्र, इंडोनेशिया, संयुक्त अरब अमीरात, मॉरीशस और सऊदी अरब में कुल 31 होटल और रिसॉर्ट हैं. आज 9,991 करोड़ रुपये की नेटवर्थ वाले ‘ओबेरॉय ग्रुप’ की शुरुआत 25 रुपये से हुई थी. ‘ओबेरॉय ग्रुप’ के संस्थापक मोहन सिंह ओबेरॉय (Mohan Singh Oberoi) थे. 

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मोहन सिंह ओबेरॉय का जन्म 1898 में झेलम ज़िले (अब पाकिस्तान में) के भाऊन गांव में हुआ था. उनके पिता ठेकेदारी करते थे. लेकिन पेशावर में काम के दौरान उनकी अचानक मौत हो गई.उस समय मोहन केवल 6 महीने थे. पिता खोने के बाद मोहन के लिए उनकी मां ही सब कुछ थीं. उस दौर में महिलाएं इतनी सशक्त नहीं थीं, इसलिए मोहन के पालन पोषण के लिए मां को कई तरह की मुसीबतों का सामना करना पड़ा. मोहन ने अपनी शुरुआती पढ़ाई गांव के स्कूल से पूरी की. इसके बाद वो आगे की पढ़ाई के लिए रावलपिंडी चले गये.

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लाख कोशिशों के बाद भी नहीं मिली नौकरी

रावलपिंडी के एक सरकारी कॉलेज में दाखिला मिलने के बाद मोहन ओबेरॉय अपने परिवार की मदद के लिए पार्ट टाइम नौकरी भी तलाशने लगे. लेकिन कहीं कुछ हुआ नहीं. इस बीच कॉलेज की पढ़ाई भी पूरी हो गयी, लेकिन दर-दर भटकने के बाद भी उन्हें कहीं नौकरी नहीं मिली. इसके बाद वो अपने एक मित्र की सलाह पर टाइपिंग और स्टेनोग्राफ़ी सीखने अमृतसर चले गए. लेकिन ये बात उन्हें जल्दी ही समझ आ गई कि टाइपिंग सीखने से भी उन्हें नौकरी नहीं मिलने वाली. वो इसलिए भी परेशान थे क्योंकि इसमें उनके पैसे ख़र्च हो रहे थे.

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खाने के पैसे भी हो गए थे ख़त्म 

इस दौरान खाने के पैसे भी ख़त्म हो गए थे इसलिए गांव वापस लौट आए. गांव लौटने के बाद परिवार की आर्थिक हालत देख मोहन से रहा नहीं गया और अपने चाचा के कहने पर जूतों की एक फैक्ट्री में मज़दूरी करने लगे. ये नौकरी मोहन सिंह के मन मुताबिक़ तो नहीं थी, लेकिन कुछ पैसे ज़रूर मिल पा रहे थे. लेकिन किस्मत उनकी किस्मत इतनी ख़राब थी कि कुछ ही समय बाद ही जूतों की वो फैक्ट्री ही बंद हो गई. निराश मोहन सिंह एक बार फिर खाली हाथ घर लौट आये. 

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मां ने दिए थे 25 रुपये 

सन 1920 की बात है जब मोहन गांव लौटे तो परिवार वालों ने उनके आगे शादी का प्रस्ताव रख दिया. 20 साल के मोहन सिंह की शादी कोलकाता की एक लड़की से हो गयी. शादी के बाद उनका अधिकतर समय ससुराल में ही बीतने लगा. किस्मत तो मोहन सिंह को पहले से ही तंग कर रही थी, रही सही कसर ‘प्लेग बीमारी’ ने पूरी कर दी. काफी समय ससुराल में बिताने के बाद जब वो अपने गांव लौटे तो पाया कि गांव में प्लेग की बीमारी फ़ैली हुई है. ऐसे में वो अपनी मां के पास रहना चाहते थे, लेकिन मां ने प्लेग के डर से उन्हें गांव में रुकने से मना कर दिया. 

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मोहन सिंह मां की बात टाल न सके और गांव से निकल गए. इस दौरान घर से निकलते हुए मां ने मोहन सिंह के हाथ में 25 रुपये थमा दिए. तब मोहन सिंह ओबेरॉय को इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं था कि उनके अरबों के साम्राज्य की नींव इन्हीं 25 रुपयों से रखी जाएगी.

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सन 1922 में अपनी मां से 25 रुपये लेकर शिमला चले गए. इस दौरान उन्हें 50 रुपये प्रति माह के वेतन पर ‘द सेसिल होटल’ में फ्रंट डेस्क क्लर्क की नौकरी मिल गई. वो अपने काम के प्रति बेहद ईमानदार थे, उनकी इसी ईमानदारी से प्रभावित होकर सेसिल होटल के प्रबंधक, अर्नेस्ट क्लार्क और उनकी पत्नी गर्ट्रूड ने अपने कार्लटन होटल के प्रबंधन की ज़िम्मेदारी मोहन ओबेरॉय को सौंप दी. 

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अर्नेस्ट क्लार्क और उनकी पत्नी गर्ट्रूड की छह महीने की अनुपस्तिथि में मोहन ओबेरॉय ने अपने नेतृत्व में होटल के प्रॉफ़िट को दोगुना कर अस्सी प्रतिशत तक कर दिया. पांच साल की कड़ी मेहनत के बाद 14 अगस्त, 1934 को मोहन सिंह ओबेरॉय शिमला स्थित कार्लटन होटल के एकमात्र और पूर्ण मालिक बन गए. बाद में उन्होंने इसका नाम मिस्टर अर्नेस्ट क्लार्क के नाम पर रखा, जिसे आज हम ‘क्लार्क होटल’ के नाम से जानते हैं. 

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इस होटल को खरीदने के बाद मोहन सिंह ओबेरॉय ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. सन 1947 में ‘ओबेरॉय पाम बीच होटल’ खोलने के साथ ही उन्होंने ‘मर्करी ट्रेवल्स’ के नाम से एक ट्रैवल एजेंसी भी खोल दी. सन 1949 में ‘द ईस्ट इंडिया होटल लिमिटेड’ होटल कंपनी की शुरुआत की. इसके बाद मोहन सिंह ने मुंबई में 18 करोड़ की लागत से ओबेरॉय होटल की शुरुआत की. अगले कुछ दशकों में वो देश के सबसे बड़े होटल उद्योगपति बन गए.

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मोहन सिंह ओबेरॉय सन 1968–1971 लोकसभा में मेंबर ऑफ़ पार्लियामेंट भी रहे. सन 2000 में उन्हें ‘पद्म भूषण’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया. जीवन में तमाम संघर्षों के बाद अपार सफ़लता अर्जित करने वाले मोहन सिंह ओबेरॉय साल 2002 में इस दुनिया को अलविदा कह गए.

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