प्राचीन काल में आज की तरह सुविधाजनकर रास्ते नहीं हुआ करते थे. इतिहास के पन्नों को खंगाले, तो पता चलेगा कि उस समय लंबा सफ़र करना कितना कष्टदायक था. वहीं, जब रास्ता बीहड़ों और पहाड़ियों के बीच से जाता हो, तो परेशानियां और ज़्यादा बढ़ जाती थीं. वहीं, इतिहास में कुछ रास्ते ऐसे भी हुए जिन्हें मौत का द्वार या मौत की घाटी जैसे नाम दिए गए, क्योंकि ये रास्ते सिर्फ़ भौगोलिक तौर से ही ख़तरनाक नहीं थे, बल्कि यहां लूट और किसी भी पल आक्रमण का ख़तरा बना रहता था. ऐसा ही एक ऐतिहासिक रास्ता हुआ ‘खैबर दर्रा’, जिसे मौत की घाटी का द्वार कहा गया है. आइये, इस लेख के ज़रिए जानते हैं इस ऐतिहासिक मार्ग से जुड़ी कुछ अनुसनी बातें.  

ख़ैबर दर्रा 

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ख़ैबर दर्दा पाकिस्तान के Khyber Pakhtunkhwa प्रांत में अफ़ग़ानिस्तान की सीमा से लगा एक पहाड़ी रास्ता है. ये मार्ग पेशावर से 11 मील दूर ‘बाब-ए-ख़ैबर’ से शुरू होकर यहां से 24 मील दूर पाक-अफ़ग़ान की सीमा पर ख़त्म होता है. बीबीसी के अनुसार, इस पहाड़ी मार्ग पर कभी अफ़रीदी कबाइलियों का दबदबा था और उस समय यहां से गुज़रने वालों को टैक्स के रूप में एक छोटी रक़म अफ़रीदी कबाइलियों को देनी पड़ती थी.  

हो चुके हैं कई हमले  

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इतिहासकारों का मानना है कि इस पहाड़ी मार्ग पर जितने आक्रमण हुए हैं, उतने आज तक किसी भी मार्ग पर नहीं हुए हैं. यहां के कई सैन्य अभियान होकर गुज़रे हैं, जिनमें से कई को अफ़रीदी कबाइलियों का आक्रमण झेलना पड़ा.  

ख़तरनाक भौगोलिक स्थिति  

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बीबीसी के अनुसार, इस मार्ग को सबसे ख़तरनाक यहां की भौगोलिक स्थिति बनाती है. मार्ग के दोनों ओर ऊंची-ऊंची चट्टाने हैं और इनके बीच गुफ़ाओं की भूल-भूलैया. वहीं, ‘अल मस्जि़द’ इलाक़े पर आकर ये मार्ग एक संकरा हो जाता है. इसी इलाक़े की ऊंची चट्टानों के बीच छुपकर अफ़रीदी क़बाइली हज़ारों की संख्या वाली फ़ौज़ पर भी भारी पड़ जाते थे. इस वजह से इसे मौत की घाटी का द्वारा भी कहा जा जा सकता है.  

 ‘बाब-ए-ख़ैबर’ द्वार का निर्माण  

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जैसा कि हमने आपको ऊपर बताया कि ख़ैबर दर्रे की शुरुआत ‘बाब-ए-ख़ैबर’ से होती है. यहां एक बड़ा प्रवेश द्वार का निर्माण पूर्व राष्ट्रपति फील्ड मार्शल अयूब ख़ान के समय कराया गया था. माना जाता है इसे बनाने में लगभग 2 वर्ष का समय लगा था. वहीं, द्वार पर उन शासकों और आक्रमणकारियों का नाम उकेरा गया है, जिन्होंने इस मार्ग का इस्तेमाल किया था.  

सिकंदर को भी पीछे हटना पड़ा 

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बीबीसी के अनुसार, भारत की ओर बढ़ने के लिए सिकंदर ख़ैबर दर्रे का इस्तेमाल करना चाहता था, लेकिन उसे अफ़रिदी कबाइलियों का प्रतिरोध झेलना पड़ा. इसके बाद सिकंदर की मां ने उसे इस मार्ग से हटने और दूसरे मार्ग का चुनाव करने की बात कही. सिंकदर बाद में बाजौड़ के रास्ते अपनी मंज़िल की ओर आगे बढ़ा.  

अंग्रेज़ों ने भी टेके घुटने  

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अंग्रेज़ों को भी अफ़रिदी कबाइलियों को एक बड़ी रक़म टैक्स के रूप में देनी होती थी. दरअसल, जब ब्रिटिश सिख सेना को अफ़ग़ानिस्तान में तैनात किया गया था, तो उनके लिए ख़ैबर मार्ग का खुला रहना ज़रूरी था. वहीं, मार्ग खुला रखने के लिए अफ़रिदी कबाइलियों को भुगतान करना ज़रूरी था. इसलिए, अंग्रेज़ सालाला 1 लाख 25 हज़ार रुपए अफ़रिदी कबाइलियों को देते थे.