1857 की क्रांति ने देश के लोगों के दिलों में आज़ादी की चिंगारी तो भड़का दी थी, लेकिन ये चिंगारी धीरे-धीरे बुझने लगी थी. ऐसे में ये ज़रूरी हो गया था कि कोई लोगों को फिर से अंग्रेज़ों से आज़ादी पाने के लिए प्रेरित करे. महाराष्ट्र के दूसरे शिवाजी कहे जाने वाले वासुदेव बलवन्त फड़के ने ये काम किया था. 

चलिए आज आपको उनके बलिदान की कहानी भी बता देते हैं. 

ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ सशस्त्र विद्रोह की शुरुआत की

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वासुदेव बलवंत फड़के 1857 की क्रांति कि विफलता के बाद एक बार फिर से ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ सशस्त्र विद्रोह शुरू करने वाले क्रांतिकारी थे. वो महाराष्ट्र के रायगढ़ ज़िले के रहने वाले थे. प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद वो पुणे आ गए. यहां वो अंग्रेज़ों के मिलिट्री एकाउंट्स डिपार्टमेंट में नौकरी करने लगे. इस  दौरान वो स्वतंत्रता सेनानियों के संपर्क में आए, इनमें महादेव गोविंद रानाडे भी थे. अब उनमें भी बगावत की ज्वाला जलने लगी थी. इस बीच कुछ ऐसा हुआ कि ये ज्वाला भड़क कर शोला बन गई.

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इस घटना से आहत हुए थे फड़के

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बात 1871 की जब एक दिन उन्हें तार मिला. इसमें मां कि तबीयत खराब होने का संदेश था और तुरंत घर आने को फड़के को कहा गया था. फड़के ने तुरंत अपने सीनियर अंग्रेज़ ऑफ़िसर से छुट्टी मांगी. लेकिन भारतीयों से नफ़रत करने वाले उस अंग्रेज अफ़सर ने फड़के को छुट्टी नहीं दी. मां कि तबीयत खराब हो और बेटा देखने न पहुंचे ऐसा तब के समय में संभव न था. हुआ भी ऐसा फड़के बिना बताए अगले दिन घर पहुंच गए. मगर तब तक देर हो चुकी थी और मां परलोक सिधार चुकी थी. इस घटना से फड़के काफ़ी आहत हुए और उन्होंने अंग्रज़ों के ख़िलाफ एक संगठन बना डाला.

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7 ज़िलों में था इनके संगठन का दबदबा

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ये संगठन अंग्रेज़ों के ठिकानों पर छापेमारी करता, वहां से धन लूट कर लोगों में वितरित करता. इस संगठन को बनाने की प्रेरणा उन्होंने वीर शिवाजी से ली थी. इसके लिए वो बाकायदा जंगलों में लोगों को लड़ने की ट्रेनिंग भी दिया करते थे. उनका संगठन बढ़ता गया और महाराष्ट्र के 7 ज़िलों में उसका दबदबा कायम हो गया. इससे ब्रिटिश सरकार तिलमिलाने लगी. कहते हैं कि बलवंत फड़के का ख़ौफ़ उनमें ऐसा था कि वो उसका नाम सुनते ही थरथराने लगते थे. इसलिए उन्होंने बलवंत फड़के को ज़िंदा या मुर्दा पकड़कर लाने वाले को 50 हज़ार रुपये का इनाम देने की घोषणा कर कर रखी थी. 

कालापानी में हुए शहीद

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1879 की एक रात वो अंग्रेज़ों छिपकर बीमार अवस्था में पुणे के एक मंदिर में आराम कर रहे थे. यहां किसी ने मुखबिरी करते हुए अंग्रेज़ों तक ये बात पहुंचा दी. ब्रिटिश सेना ने उन्हें घेर कर गिरफ़्तार कर लिया. उन पर कई मुकदमे दायर किए गए और अदालत ने उन्हें कालापानी की सज़ा सुना दी. 17 फ़रवरी 1883 को वासुदेव बलवंत फड़के कालापानी की सज़ा काटते हुए शहीद हो गए. आज़ादी के बाद इनके नाम पर भारत सरकार ने इनके नाम की एक पोस्ट स्टैंप जारी की थी. यही नहीं महाराष्ट्र में कई जगह पर भारत के इस वीर सपूत की मूर्तियां स्थापित कर उनके बलिदान को याद किया गया. 

देश के वीर सपूत को हमारा कोटी-कोटी प्रणाम.