फ़िल्मों में आम आदमी के किरदार को हूबहू गढ़ने की बात हो तो ज़ुबां पर एक ही नाम आता है बलराज साहनी. वो हिंदी सिनेमा के ऐसे कलाकार थे जो आम आदमी के कैरेक्टर को परदे पर जीवंत कर देते थे. फ़िल्म क्रिटिक्स तो यहां तक कहते थे कि वो अपनी अलौकिक भाव भंगिमाओं और सादगी से दुनिया के किसी भी आम आदमी के कैरेक्टर को पर्दे पर उतारने की क्षमता रखते थे.
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बलराज साहनी साहब इसके लिए कड़ी मेहनत भी करते थे. फ़िल्म ‘दो बीघा ज़मीन’ के लिए उन्होंने रिक्शा चालकों की तरह कोलकाता की सड़कों पर रिक्शा चलाया था. कई लोगों को उन्होंने उनके गंतव्य तक पहुंचाया भी, मगर फिर भी कोई उन्हें पहचान नहीं पाता था. सिर्फ़ आर्ट फ़िल्में ही नहीं, वो कमर्शियल फ़िल्मों में भी कमाल की एक्टिंग किया करते थे. उनकी कुछ यादगार फ़िल्में हैं ‘दो बीघा जमीन’, ‘वक़्त’, ‘काबुलीवाला’, ‘एक फूल दो माली’ ‘गर्म हवा’, ‘सीमा’ ‘धरती के लाल’ आदि.
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बलराज साहनी जितने मंझे हुए कलाकार थे उतना ही सादा उनका जीवन था. वो चुटकियों में बोल्ड डिसीजन ले लिया करते थे. अपने ज़माने के सुपरस्टार होने के बावजूद वो मोटर साइकिल पर ही फ़िल्म की शूटिंग करने चले जाया करते थे. आम आदमी के अधिकारों के लिए हमेशा लड़ते रहते थे. आम आदमी के प्रति उनकी संवेदनाएं रवींद्रनाथ टैगोर के शांति निकेतन में हुई शिक्षा से जागृत हुई थीं.
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इसके बाद वो महात्मा गांधी के साथ स्वतंत्रता संग्राम में भी कूद पड़े थे. यहां गांधी जी के साथ काम करते हुए उन्होंने आम आदमी की टीस और दुख दर्द को क़रीब से जाना था. आज़ादी के बाद वो कम्युनिस्ट विचारधारा के समर्थक हो गए. अपनी विचारधारा और बेबाक़ी के कारण उन्हें जेल की हवा भी खानी पड़ी थी.
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दरअसल, बलराज साहनी ने एक रैली में मानव अधिकारों का हनन करने वालों का पुरज़ोर विरोध करते हुए भाषण दिया था. इसके बाद उन्हें 6 महीने की जेल की सज़ा हुई थी. वो शायद पहले अभिनेता होंगे जो मानवाधिकारों के लिए आवाज़ उठाने के लिए जेल गए होंगे. मगर जेल की हवा भी उनके विचारों को बदल न सकी. वो मरते दम तक मार्क्सिस्ट विचारधारा के समर्थक रहे.
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यहां तक उन्होंने अपनी अंतिम समय में ये कहा था कि उनकी मौत हो तो अंतिम यात्रा में उनके जनाज़े पर लाल झंडा लगा हो और न तो कोई पंडित बुलाया जाए और न कोई मंत्र पढ़ा जाए.
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