कहते हैं कि हर सफ़ल आदमी के पीछे एक औरत का हाथ होता है. इस बात के एक नहीं, बल्कि कई उदाहरण हैं. इन्हीं में से एक उदाहरण ‘सरस्वती बाई फ़ालके’ भी हैं. जिन्हें नहीं पता है उन्हें बता दें कि ‘सरस्वती बाई फ़ालके’, दादासाहब फ़ालके की पत्नी थीं. अगर वो न होती, तो हिंदी सिनेमा को उसकी पहली फ़िल्म न मिल पाती. कैसे? चलो वो भी जान लेते हैं.

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‘सरस्वती बाई फ़ालके’ के बिना नहीं बन पाती पहली फ़िल्म 

कहा जाता है कि ‘सरस्वती बाई फ़ालके’, दादासाहब फ़ालके का पिलर थीं. उनकी वजह से ही दादासाहब फ़ालके भारत की पहली फीचर फिल्म, ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाने में कामयाब हो पाये थे. दरअसल, 1902 में दादासाहब की शादी कावेरीबाई से हुई थी. शादी मराठी रीति-रिवाज़ से हुई थी. इसलिये शादी के बाद उनका नाम ‘सरस्वती बाई’ रख दिया था.  

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शादी के बाद दादासाहब फ़ालके ने घर चलाने के लिये नौकरी करने लगे. इसके बाद उन्होंने पत्नी की मदद से ख़ुद की प्रिंटिंग प्रेस शुरू कर दी. ज़िंदगी यूंही चल रही थी. 1910 में वो दिन आया जब दादासाहब फ़ालके अपनी पत्नी को मुंबई अमेरिकन शॉर्ट फिल्म, ‘द लाइफ ऑफ़ क्राइस्ट’ दिखाने लाये. फ़िल्म देखने के बाद फ़ालके साहब ने ‘सरस्वती बाई फ़ालके’ से कहा कि वो भी एक दिन अपनी फ़िल्म बनायेंगे.  

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दादासाहब फ़ालके के मुंह से फ़िल्म निर्माण की बात सुन कर दोस्तों और परिवार वालों ने उनकी बात को हंसी में टाल दिया. पर उनकी पत्नी ने इस बात को बिल्कुल हल्के में नहीं लिया. सरस्वती लगातार अपने पति को उनका सपना पूरा करने के लिये प्रोत्साहित करती रहीं. यहां तक फ़िल्म बनाने के लिए जब कोई फ़ाइंसेर नहीं मिला, तो उन्होंने अपने गहने बेचकर दादासाहेब फ़ालके की मदद की.  

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‘सरस्वती बाई फ़ालके’ ने सिर्फ़ पैसों से ही नहीं, बल्कि हर तरह से फ़िल्म बनाने में दादासाहब फ़ालके की मदद की. फ़िल्म सेट पर वो कई घंटों तक सफ़ेद चादर लेकर खड़ी रहती हैं. आपको बता दें कि उस वक़्त लाइट रिफ़्लेक्शन के लिये सफ़ेद चादर का यूज़ होता है. यही नहीं, इस दौरान उन्होंने एडिटिंग भी सीखी और दादासाहब की बनाई हुई पहली फ़िल्म की एडिटिंग ‘सरस्वती बाई फ़ालके’ ने की. इस तरह से उन्होंने फ़िल्म बनाने में अहम रोल अदा किया.

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अगर वो न होती, तो शायद ‘राजा हरिश्चंद्र’ फ़िल्म का बनना संभव न होता.