फ़िल्मों में महिलाओं के पात्रों की प्रासंगिकता पर अक्सर सवाल उठते रहे हैं. कमर्शियल सिनेमा और आर्ट सिनेमा में तमाम तरह का विरोधाभास देखने को मिला है. बॉलीवुड में बीच-बीच में महिला प्रधान फ़िल्में देखने को मिलती रही हैं लेकिन कमर्शियल सिनेमा ने कहीं न कहीं अदाकाराओं को नाचने-गाने या शोपीस तक ही सीमित कर दिया है.

लेकिन मॉर्डन डे फ़िल्मकार अनुराग कश्यप अपने अनअपॉलोजेटिक, साहसी, विद्रोही तरीकों से कई स्टीरियोटाइप्स को रौंदते हैं जो कहीं न कहीं फ़िल्मों में महिलाओं के चित्रण से भी जुड़ा हुआ है शायद यही वजह है कि हुमा कुरैशी, रिचा चड्ढा, माही गिल, कल्कि कोचलिन, अनुराग कश्यप मार्का सिनेमा को सहमति देती हैं. आज उन्हीं की फ़िल्मों की अदाकाराओं के बारे में कुछ खास बातें जो सामान्य तौर पर आम कमर्शियल सिनेमा में देखने को नहीं मिलती.

दैट गर्ल इन यलो बूट्स की ब्रिटिश भारतीय रूथ बाप को खोजते हुए हिंदुस्तान आती हैं, घुटन और बैचेनी उसकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा हो चुका है. ड्रग एडिक्ट ब्वॉयफ़्रेंड, माफ़िया, पुलिस और भ्रष्ट सरकारी तंत्र से घिरी रूथ को हर पल खाने और नोंचने की कोशिश की जाती है. फ़िल्म की हर परिस्थिति का तनाव रूथ के साथ-साथ चलते रहते हैं लेकिन अंत में जो सामने आता है वो बजाए एक खुशनुमा अहसास के, एक सिहरन पैदा कर देता है. खास बात ये है कि रूथ के साथ होती घटनाओं के हिसाब से ही फ़िल्म का नैरेटिव तैयार होता है.

देव डी में माही गिल का किरदार, बॉलीवुड में कई स्टीरियोटाइप्स को तोड़ता दिखाई देता है. मसलन पारो देव के साथ शारीरिक संबंध बनाने के लिए खुद खेत में गद्दा लेकर जाती है, देव के साथ झगड़ा हो जाने पर वो फिर उसके साथ हमबिस्तर होती है ताकि आत्ममुग्ध और सेल्फ़िश देव को उसकी औकात दिखा सके. सेक्स को लेकर महिलाओं की पहल और वर्जिनटी से बेपरवाह कुछ ऐसे मुद्दे हैं जो देश के कुंठित और सेक्स को टैबू समझने वाले भारतीय समाज के लिए एक झटके की तरह प्रतीत होता है. आधुनिक और प्रैक्टिकल पारो प्यार में बेबस होने के बजाए आगे बढ़ जाती है.

गुलाल की किरण एक शातिर महिला है, जो अपनी कामुकता और चालाकी के दम पर राजनीतिक सीढ़ियां चढ़ती चली जाती है और जब उसका मकसद पूरा हो जाता है, तो वो फ़िल्म के लीड कैरेक्टर को भी उसके हाल पर छोड़ देती है. आखिर में किरण गुलाल से पुते चेहरों की भीड़ में खड़ी होती है और उसके भाई की ताजपोशी हो जाती है. खास बात ये है कि एक Masculinity से भरे पुरूष प्रधान समाज में एक महिला अपने हिसाब से चीज़ों को बदल कर रख देती है.

इसके अलावा देव डी में एमएमएस कांड में फंसी लेनी, परिवार और समाज से दुत्कार दी जाती है, लेकिन वो हार नहीं मानती. जिस सभ्य समाज में वो खुशियां ढूंढती हैं, महज एक झटके में वहीं समाज उससे सब कुछ छीन लेता है लेकिन लेनी अपने आपको अबला, बेचारी या लाचार कहलाना पसंद नहीं करती. दिन में कॉलेज जाती है और रात को अपने ग्राहकों से अलग Accent में बात करती है. वो आत्मनिर्भर है और अपनी परिस्थितियों को ही अपनी ताकत बना लेती है. 

देश की सबसे चर्चित गैंगस्टर फ़िल्मों में शुमार गैंग्स ऑफ़ वासेपुर में यूं तो पुरूषों का दबदबा बना रहता है लेकिन नगमा खातून के रूप में रिचा चड्ढा एक सशक्त किरदार के रूप में उभरती हैं. अपने पति को किसी महिला के साथ हमबिस्तर होने की बात जब उसे पता चलती है तो वो लाचार होने के बजाए वेश्यालय में ही उसे दौड़ाने पहुंच जाती है. पति की बेवफ़ाई के बावजूद अपने सभी बच्चों को पाल पोस कर बड़ा करना उसकी मानसिक मज़बूती का परिचायक है.