‘सरदार ख़ान नाम है हमारा, बता दीजिएगा उसको.’ 

‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ देखने के बाद ये डायलॉग तो शायद ही कोई भूल पाया होगा. वैसे एक बात है अनुराग कश्यप जब भी फ़िल्म बनाते हैं, उसमें कुछ न कुछ नया देखने को मिलता है. शायद इसी कारण हिंदी सिनेमा प्रेमियों का फ़िल्मों को लेकर टेस्ट भी बदला है. 

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‘सत्या’, ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ ‘देवडी’, ‘ब्लैक फ़्राइडे’, ‘नो स्मोकिंग’ और ‘द गर्ल इन यलो बूट्स’, जैसी डार्क और Realistic फ़िल्में बनाने वाले अनुराग कश्यप ने कभी भी एक ज़ोन में रह कर फ़िल्म नहीं बनाई. इन फ़िल्मों के ज़रिये वो समाज का नज़रिया बदलने में भी कामयाब रहे. उनकी फ़िल्मों में आपको भव्य सेट की जगह साधारण से घर दिखाई देंगे. ज़्यादातर फ़िल्मों की लोकेशन भी देसी ही होती है. कुल मिला कर वो अपनी फ़िल्मों को देसी तड़का लगा कर तैयार करते हैं. 

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अनुराग कश्यप की ‘मनमर्ज़ियां’, ‘मुक्काबाज़’ और ‘गुलाल’ जैसी फ़िल्मों ने लोगों का ख़ूब मनोरंजन भी किया. अनुराग कश्यप ने कम बजट में बेहतरीन फ़िल्में बना कर ये साबित कर दिया कि भव्य सेट और मंहगी लोकेशन के बिना भी फ़िल्में हिट हो सकती हैं. क्योंकि अनुराग कश्यप की फ़िल्में Realistic होती हैं, इसलिय लोग उन्हें ख़ुद से जोड़ कर देखते हैं. 

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हांलाकि, सभी फ़िल्मों की तरह अनुराग कश्यप की फ़िल्मों पर सेंसर बोर्ड कैंचियां भी ख़ूब चलाता है. गोरख़पुर में जन्मे अनुराग कश्यप कभी 5-8 हज़ार रुपये लेकर मुंबई आये थे. पैसों की कमी कारण कई बार उन्हें सड़कों पर भी सोना पड़ा. इसके बाद किसी तरह उन्हें पृथ्वी थिएटर के साथ काम करने का मौका मिला, लेकिन अफ़सोस निर्देशक के निधन की वजह उनका पहला प्ले अधूरा रह गया. इसके बाद उन्होंने फ़िल्म ‘पांच’ से निर्देशन की शुरूआत की, पर सेंसरबोर्ड के विरोध के कारण ये फ़िल्म आज तक रिलीज़ नहीं हो पाई. 

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डायलॉग, कहानी और देसी चीज़ों का तड़का लगा कर फ़िल्मों के ज़रिये हमारा मनोरंजन करने वाले अनुराग कश्यप को जन्मदिन की बधाई!