‘मैं शायद कभी Black Friday जैसी फ़िल्म नहीं बना पाऊंगा’

इंडियन सिनेमा को 9 फरवरी, 2007 में Black Friday जैसी फ़िल्म देने वाले अनुराग कश्यप ने इसकी रिलीज़ से ठीक पहले ये कहा था कि वो कभी ऐसी फ़िल्म नहीं बना पाएंगे. 1993 के मुंबई ब्लास्ट्स पर बनी Black Friday, वो पहली बॉलीवुड फ़िल्म थी, जिसने उस समय सबके दिमाग को हिला कर रख दिया था.

चाहे वो बारीकी से चुनी गयी फ़िल्म की कास्ट हो, बम ब्लास्ट वाला सीन हो या फिर राकेश मारिया बने के.के मेनन का वो डायलॉग कि, ‘***** हो तुम और तुम्हारे जैसे सारे लोग, जिनके पास खाली बैठे रहने के अलावा कोई काम नहीं’.
ब्लैक-फ्राइडे की शुरुआत तब हुई थी, जब मिड-डे के अरिंदम मित्रा ने अपने ही क्राइम रिपोर्टर हुसैन ज़ैदी की बुक दिखाते हुए अनुराग कश्यप से इस पर टीवी सीरियल बनाने की बात कही थी. अनुराग ने उन्हें कहा कि इस पर फ़िल्म बननी चाहिए और इसका डायरेक्शन वो करना चाहते हैं. फ़िल्म के लिए अनुराग कई समय तक अरिंदम मित्रा को कॉल करते रहे और आखिरकार उन्हें इसके लिए हामीं भरनी पड़ी.
क्यों नहीं बन सकती आज ब्लैक फ्राइडे

आप बॉलीवुड की कोई भी फ़िल्म उठा लीजिये, ऐसा हो ही नहीं सकता कि उसके टाइटल पर, उसके किसी गाने पर, यहां तक कि हीरो के नाम पर भी लोगों को आपत्ति न हो. वरुण धवन की आने वाली फ़िल्म, ‘बद्रीनाथ की दुल्हनिया’ पर लोगों को इस बात से ऐतराज़ हो गया कि ये बद्रीनाथ भगवान का अपमान है. उस समय भी कई लोगों के नाम सीधे तौर पर इस्तेमाल होने की वजह से फ़िल्म को मानहानि के लिए कोर्ट में घसीटा गया था.
इस फ़िल्म को बनाने की दूसरी सबसे बड़ी दिक्कत थी शूटिंग. 93′ के ब्लास्ट दिखाने के लिए मुंबई को भी 90 के दशक जैसा दिखाना था. चूंकि फ़िल्म के केंद्र में मुंबई शहर था, तो इसकी शूटिंग कहीं और भी नहीं की जा सकती थी. उस ज़माने के हिसाब से न तो किसी के पास सेलफोन हो सकते थे, न ही Satellite टीवी और गाड़ियों में भी उस वक़्त की लेटेस्ट मारुती 1000 आयी थी. कैमरे की दिक्कत ये थी कि अगर किरदारों के अलावा कहीं और फ़ोकस किया जाता, तो ऊपर लगे बैनर में ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ के पोस्टर थे, जिससे साफ़ पता चलता कि ये रियल नहीं है. कई जगहों पर पुलिस की मदद से गुरिल्ला शूटिंग की गई, यानि लोगों को पता ही नहीं चला कि आगे कहीं पर कैमरे लगे हैं.
फ़िल्म का बम ब्लास्ट सीन

डॉक्यूमेंट्री को छोड़ दिया जाए, तो बॉलीवुड की किसी भी फ़िल्म में इससे रियल और वीभत्स ब्लास्ट सीन दिखाने की हिम्मत किसी डायरेक्टर की नहीं हुई. एक और नाम लेना यहां पर ज़रूरी है, गुजरात दंगों पर ‘परज़ानिया’ बनाने वाले राहुल ढोलकिया का. उन्होंने भी अपने निर्देशन में फ़िल्म में दंगों को बारीकी से Portray किया था.

ब्लैक फ्राइडे के इस ब्लास्ट सीक्वेंस में खास कर वो सीन, जब ब्लास्ट में घायल हुआ एक आदमी अधमरी हालत में किसी लाश से गोल्ड चेन निकाल कर अपनी जेब में रख लेता है. शायद ही कोई और फ़िल्म हो, जिसमें इंसानी व्यवहार को इतने सटीक और क्रूर तरीके से दिखाया गया है. इस फ़िल्म की एक कहानी में कश्यप ने 30 किरदारों की कहानी पिरो दी थी. इस फ़िल्म का सबसे मज़बूत पक्ष का इसका स्क्रीनप्ले, जिसने एक-एक कर के सभी कहानियों को जोड़ कर फ़िल्म के क्लाइमेक्स को 93′ के ब्लास्ट तक पहुंचा दिया.

गैंग्स ऑफ़ वासेपुर
भले ही सभी अनुराग कश्यप को गैंग्स ऑफ़ वासेपुर के लिए वाह-वाही दें. वासेपुर उनकी सफ़ल फ़िल्मों से एक थी, उसका इम्पैक्ट भी ज़्यादा था, लेकिन जो काम Black Friday में हुआ, उसकी बराबरी शायद कोई भी फ़िल्म नहीं कर पाएगी.