दोस्तों आपने सोनी टीवी पर आने वाला सीरियल CID तो देखा ही होगा. ये कोई पूछने की बात ही नहीं है. शायद ही कोई होगा, जिसने पिछले 2 दशकों में इस सीरियल का एक भी एपिसोड न देखा हो. इंडियन टेलीविज़न पर सबसे लंबा चलने वाला सीरियल है CID. इसमें कई किरदार हैं, जिनके लाखों फ़ैन हैं. लेकिन इसका एक किरदार है, जो मिनटों या फिर यूं कह लीजिये कि कुछ ही सेकंड्स में सारी गुत्थी को सुलझा देता है. अरे-अरे हम एसीपी प्रद्युम्न की बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि हम बात कर रहे हैं डॉ. सालुंखे की. जी हां, यही वो शख़्स है, जो इसका मास्टरमाइंड है. अगर ये शख़्स इस सीरियल में ना होता, तो एसीपी प्रद्युम्न सिर्फ़ हाथ ही हिलाते रह जाते.
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दोस्तों आपने अगर ये सीरियल देखा है, तो आपने गौर किया होगा कि किसी केस को सुलझाते वक़्त जब तक दया दरवाज़ा तोड़ते हैं और एसीपी प्रद्युम्न ‘दया कुछ तो गड़बड़ है’ बोल रहे होते हैं, तब केवल एक ही इन्सान है, जो चुटकियों में केस को सुलझा दता है और वो हैं डॉ. सालुंखे. पिछले 20 सालों से, तो यही होता आ रहा है CID में, क्यों गलत कहा क्या?
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इस शख़्स के कहने ही क्या हैं कि ये इंसान के फिंगरप्रिंट देखते ही बता सकता है कि वो इंसान कौन है और कहां से ताल्लुक रखता है. इतना ही नहीं, डॉ. सालुंखे का दिमाग इतना तेज़ चलता है कि वो लकड़ी का छोटा सा टुकड़ा देखकर ये भी बता सकते हैं कि वो इस जंगल लायी गई है.
ठीक है, कम से कम वो ऐसा करने का दावा तो करते हैं और वैसे भी हम कौन होते हैं उनकी प्रतिभा पर सवाल करने वाले क्योंकि इनकी टीवी जगत का ये ही इकलौता बन्दा है, जो 2 दशकों से इंडियन टीवी के क्राइम इन्वेस्टिगेशन डिपार्टमेंट को संभाले हुए है.
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ये उनकी प्रतिभा ही है कि डॉ. सालुंखे बुलेट को देख कर ये भी बता सकते हैं कि वो गोली किसने चलाई होगी. हमारे देश में जहां एक DNA रिपोर्ट आने में हफ़्ते लग जाते हैं, फिर चाहे वो किसी हाई प्रोफ़ाइल केस ही क्यों न हो,तब भी फ़ोरेंसिक एक्सपर्ट्स भी सटीक रिजल्ट देने में कई दिनों का वक़्त ले लेते हैं. लेकिन सबके चहेते और कर्मठ डॉ. सालुंखे के लिए ये काम कुछ ही सेकंड्स का ही है! वैसे भी उस डॉ. की प्रतिभा पर कोई कैसे शक़ कर सकता है, जिसके बेडरूम में ही उनकी प्रयोगशाला यानी कि लैबोरेटरी हो?
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ये तो प्रकृति का नियम है कि जैसे-जैसे की उम्र बढ़ती है, उसके चेहरे पर झुर्रियां पड़ने लगती हैं, क्या आप इस बैट से इनकार कर सकते हैं? नहीं ना! लेकिन डॉ. सालुंखे के केस में प्रकृति का ये नियम भी फ़ेल है. अब इस फ़ोटो को देखने के बाद तो आप इस बात पर हामी भरेंगे ही.
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क्या आपको इस बात से हैरानी नहीं होती कि पिछले कई सालों से जो व्यक्ति मेडिकल फ़ील्ड में नित-नए हैरतंगेज़ कारनामे कर जाता है, उसकी और एक बार भी नोबेल प्राइज़ कमेटी का ध्यान ही नहीं गया. ये कैसे संभव है?
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अगर आपको याद हो वो एपिसोड, जिसमें एसीपी प्रद्युम्न की आंखों की रौशनी चली गई थी और सभी बड़े डॉक्टर्स ने भी अपने हाथ खड़े कर दिए थे, तब डॉ. सालुंखे ही थे, जिन्होंने हिम्मत नहीं हारी और एसीपी की आंखें ठीक कर दीं.
मतलब कि कौन डॉ. सालुंखे को भूल सकता है, ‘ये तो गोली का ज़ख्म है, लगता है इसे गोली लगी है’.
अब इनकी बुद्धिमानी और चतुरता का इससे बड़ा क्या सबूत होगा, कि जब वो खुद हॉस्पिटल में एडमिट थे, तब भी एसीपी प्रद्युम्न को एक केस को सुलझाने में उनकी मदद लेने के लिए हॉस्पिटल आना ही पड़ा, वरना केस सुलझ ही नहीं पता.
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इन बीते 2 दशकों में हमने और आपने डॉ. सालुंखे के असिस्टेंट्स को बदलते हुए देखा है, उनकी लैब में कई असिस्टेंट आये और गए, लेकिन जहां डॉ. सालुंखे जैसा जीनियस हो, वहां पर ऐसे बेवक़ूफ़ असिस्टेंट्स की कोई ज़रूरत ही नहीं है, जो अभिजीत के साथ फ़्लर्ट करने में अपना समय बर्बाद करते हों.
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भले ही दया के पास ताकत है, लेकिन किसी भी केस को सोल्व करने के पीछे सिर्फ़ और सिर्फ़ डॉ. सालुंखे का ही तेज़ दिमाग होता है. अगर वो न होते, तो शायद कई सालों पहले ही CID के प्रसारण को बंद कर दिया गया होता. भले ही एसीपी प्रद्युम्न ये मानते रहें कि वो शोस्टॉपर हैं, लेकिन ये तो डॉ. सालुंखे की अच्छाई ही है कि वो एसीपी को ऐसा सोचने देते हैं.
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आप मानें या ना मानें, लेकिन साइंस जगत के लिए किसी तोहफे से कम नहीं हैं सालुंखे! सच है कि अगर डॉ. सलुंखे न होते तो, इंडियन टीवी की साइंस की दुनिया कब की ढह गई होती.
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हमेशा ऐसे ही अपनी महत्वपूर्ण जानकारी देते रहिये डॉ. सालुंखे.