आज से दस साल पहले जब मैं कॉलेज के सेकेंड इयर में था, उसी साल अनुराग कश्यप की एक फ़िल्म ‘देव डी’ ने सिनेमाघरों में दस्तक दी थी. वही अनुराग जिसकी इससे पहले फ़िल्म Black Friday और No Smoking आ चुकी थी. Black Friday को मैं केवल ‘अरे रुक जा रे बंदे’ गाने से ही जानता था क्योंकि संवेदनशील कॉन्टेट होने के चलते इस फ़िल्म को रिलीज़ होने में सालों लग गए थे और फिर इसे लेकर लोगों में उत्सुकता कम हो गई.

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नो स्मोकिंग का स्तर ऐसा था कि इस फ़िल्म को लोगों ने विदेशों में तो हाथों-हाथ लिया लेकिन भारत में ये फ़िल्म किसी को पसंद नहीं आई. या यूं कहे कि समझ ही नहीं आई और मैंने भी इससे दूरी बनाए रखी, जो एक बड़ी गलती थी. तो कहीं न कहीं अनुराग कश्यप जैसे प्रयोगधर्मी फ़िल्ममेकर से मैं पहली बार मुख़ातिब होने जा रहा था.

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सिनेमाहॉल में घुसने के 15 मिनट के अंदर ही ये समझ आ गया था कि अगले तीन घंटों में कई दृश्य, किरदार, डायलॉग चौंकाने वाले होंगे. शरत चंद चट्टोपाध्याय के कालजयी उपन्यास का अल्ट्रा मॉर्डन संस्करण यानि ‘देव डी’ का मुख्य पात्र सेक्स और नशे के भयानक सागर में डूबा हुआ था लेकिन कमाल की बात ये थी कि साधारण बॉलीवुड फ़िल्मों की तरह इस फ़िल्म में एडल्ट कॉन्टेंट सनसनी फैलाने के लिए नहीं था बल्कि रियलिस्टिक टच लिए था. अपने ग्रे शेड किरदारों के द्वारा अनुराग ये विश्वास दिलाने में कामयाब हो गए थे कि समाज में हर तरह की ज़िंदगियों का अपना एक अस्तित्व है.

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‘नो एंट्री’ और ‘क्या कूल है हम’ जैसी घिसी-पिटी और फ़ॉर्मूला फ़िल्मों के दौर में ‘देव डी’ एक ताज़े हवा के झोंके की तरह थी. आज से पहले तक जब भी मैंने फ़िल्मों में गाने देखे, तो वे केवल फ़िल्मों की रफ़्तार थामने के लिए इस्तेमाल होते थे लेकिन ऐसा पहली बार था कि गाने फ़िल्म की रफ़्तार थामने के बजाए, उसे एक नया कलेवर प्रदान कर रहे थे. 


ये केवल गाने भर न होकर देव, पारो और चंदा के किरदारों को नई दिशा दे रहे थे.

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‘पायलिया’, ‘परदेसी’, ‘कहां चली गई साली ख़ुशी’ जैसे गानों में जिस प्रकार रंगों का और कैमरे का इस्तेमाल हुआ, वो स्वप्न सरीखा था. फ़िल्म ख़त्म होने तक मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि इस फ़िल्म में दर्जन भर गाने इस्तेमाल किए जा चुके हैं. ऐसा लग रहा था जैसे पिंक फ्लॉयड या टेम इंपाला ने अनुराग के साथ आकर इस फ़िल्म में रंग बिखेर दिए हों. 

थोड़ा रिसर्च करने पर पता चला कि ‘देव डी’ की शुरुआत में मशहूर फिल्म निर्देशक डैनी बॉयल को खास तौर पर धन्यवाद दिया गया था क्योंकि डैनी को लाइट्स और सिनेमाटोग्राफ़ी के साथ अनूठे प्रयोग के लिए जाना जाता है. वही डैनी, जो आने वाले समय में Slumgdog Millionaire जैसी फ़िल्म से भारतीय पटल पर छा जाने वाले थे. 

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लेकिन सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात थी, फ़िल्म की महिला किरदारों का तेज़ तर्रार अंदाज़. फ़िल्म में पारो का कैरेक्टर बेहद आधुनिक और व्यावहारिक था. वो अपनी सेक्सुएलिटी को लेकर शर्म महसूस नहीं करती थी और देव के साथ सेक्स करने के लिए ख़ुद खेत में गद्दा लेकर जाती है. बॉलीवुड में महिलाओं को मैंने पहले कभी इस तरह की पहल के साथ नहीं देखा था. फ़िल्म में वर्ग की जटिलताओं को भी ख़ूबसूरती के साथ दिखाया गया था. जिस अंदाज़ में पारो सुनील को दुत्कारती है, लगभग उसी अंदाज़ में क्लास और रसूख का हवाला देकर देव भी पारो को नकार देता है लेकिन प्रैक्टिकल पारो प्यार में बेबस होने के बजाए, मूव ऑन कर जाती है. 

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अपनी शादी के बाद भी उसे देव की हालत देखकर तरस ज़रूर आता है लेकिन अब उसे लेकर वह भावुक नहीं होती. बेचारगी और त्रासदी की राह से दूर वह अपनी फ़ैमिली के साथ जीवन में आगे बढ़ जाती है, जो उसकी मानसिक मज़बूती का परिचायक है और कहीं न कहीं देव डी एक फ़ेमेनिस्ट फ़िल्म भी कही जा सकती है. माही गिल ने अपने सधे हुए अभिनय से बेहद उम्मीदें जगाई थी, हालांकि वे आजकल चर्चा से बाहर हैं.

वहीं अंजाने में एमएमएस कांड में फंस गई लेनी, परिवार और समाज से बहिष्कृत होने के बाद चुन्नी की मदद से दिल्ली के पहाड़गंज में शरण पाती है और अपना नाम चंद्रमुखी रखती है. कुल्टा समझी गई चंदा मानती है कि समाज का अधिक हिस्सा कुत्सित ओर गंदी चीज़ें देखने में रस लेता है. जिस समाज ने उसे बहिष्कृत किया, उसी समाज ने उसके एमएमएस को देखा. जिस सभ्य समाज में वो ख़ुशियां ढूंढती है, महज़ एक झटके में वही समाज उससे सब कुछ छीन लेता है लेकिन लेनी लाचार नहीं होती. वह रात में लोगों के साथ सेक्स चैट करती है और दिन में कॉलेज में पढ़ाई. वो आत्मनिर्भर है और समाज से दुत्कारे जाने के बावजूद लेनी ख़ुद को संभालने में कामयाब हो जाती है. 

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वहीं अनुराग का देव न तो शाहरूख की तरह त्रासदियों से भरा हुआ था और न ही वो दिलीप कुमार की तरह एक लार्जर दैन लाइफ़ कैरेक्टर प्रतीत होता था. देव एक आत्मलिप्त और भावनात्मक रूप से असुरक्षित इंसान था, जिसे सिवाए अपने आप के किसी से प्यार नहीं था. वो भले ही लंदन से पढ़ाई कर चुका मॉर्डन ख़्यालात लड़का था लेकिन महज़ एक इंसान की बात मानकर पारो और लेनी को छोड़ देने वाला देव दकियानूसी विचारों से भी भरा हुआ था. Narcissist देव मन की शांति के लिए ड्रग्स और नशे की दुनिया में कूद पड़ता है. हालांकि परिस्थितियों से ज्यादा दिक्कतें उसे अपने फ़ैसले लेने की अक्षमता की वजह से आती है.

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अनुराग के सिनेमा से परिचय मेरे लिए अपने आप में एक नया और शॉकिंग अनुभव था. वे ये बार-बार कहते रहे हैं कि उनकी फ़िल्मों का मकसद दर्शकों को मनोरंजन के साथ-साथ चौंकाना भी है. वो लोगों को उस कंफ़र्ट ज़ोन से बाहर ले जाना चाहते हैं, जिसे लोग अपनी 9-5 वाली ज़िंदगी में महसूस ही नहीं कर पाते. आर्ट अगर समाज और सोसाइटी के बने-बनाए ढर्रे पर ही चलती रहे, तो उसकी अहमियत पर ही सवाल उठने लगता है. 

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देव डी के किरदार भी इस दिखावटी समाज का ही हिस्सा हैं लेकिन चूंकि ये आदर्श नहीं हैं इसलिए हम इनके बारे में चर्चा से भी दूर भागते हैं. अनुराग, ‘देव डी’ में मानव के जटिल इमोशंस को रंगों और संगीत के सहारे एक अद्भुत दुनिया में ले जाने में सफल रहे थे. ‘देव डी’ का असर मुझ पर लगभग दो दिनों तक रहा था और अब सगता है, ताउम्र रहेगा.