हरेक फ़िल्मकार अपने किस्से, अपने अंदर रची-बसी कहानी को कहने के लिए एक फ़िल्म का निर्माण करता है. वो कई लोगों के साथ मिलकर फ़िल्म की इमारत में कला की कई ईंटें लगाता है. निर्देशक के अंदर जो फलसफ़ा चलता है, उसे वो अपने साथ काम कर रहे क्रू तक पहुंचाने की बखूबी कोशिश करता है. उस कोशिश में गर वो सफल रहता है, तो एक उम्दा फ़िल्म का निर्माण हो जाता है. फ़िल्म कभी एक इंसान नहीं बना सकता, उसके लिए कई लोगों की मेहनत, कई लोगों का हुनर उसे दिशा और दशा देता है. सादगी से भरी फ़िल्मों को मध्यम वर्ग के चूल्हे में पकाने वाले एक निर्देशक का नाम है, ऋषिकेश मुखर्जी. जिस प्रकार हरेक कलाकार की कलाकृति ही उसकी पहचान होती है, उसी प्रकार उनकी फ़िल्में ही उनका पहचान थीं.
कहां से शुरु हुआ फलसफ़ा?
इनका जन्म 30 सिंतबर 1922 को कोलकाता (तब कलकत्ता) में हुआ था. ये एक ब्राह्म्ण परिवार में पैदा हुए थे. अपनी पढ़ाई इन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से की. इसके अलावा इन्होंने कई दिनों तक गणित और विज्ञान की शिक्षा भी दी.
कैसे जुड़े फ़िल्मों से?
शुरुआत में ये बतौर कैमरामैन बी. एन. सरकार के साथ जुड़कर काम करने लगे. ये बात साल 1940 के आस-पास की रही होगी. काफ़ी समय तक यहां सीखने के बाद, साल 1951 में मुंबई (तब बंबई) चले गये और यहां उन्हें मशहूर एवं संजीदा निर्देशक, बिमल रॉय के साथ काम करने का मौका मिला. फ़िल्म का नाम था “दो बीघा ज़मीन”. इस फ़िल्म में सहायक निर्देशक के तौर पर उनके काम की काफ़ी सराहना की गई. ये फ़िल्म आज भी दर्शकों के दिलों की दीवार में एक आले की तरह है. उस दौर के हालातों को इतनी सटीकता से कैमरे में उतारा गया है, मानो हालात बदले ही ना हों. इसके अलावा उन्होंने शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के मशहूर उपन्यास “देवदास” पर आधारित फ़िल्म “देवदास” में भी सहायक निर्देशक काम किया था.
वो पहली फ़िल्म…
साल 1957 में ऋषि दा (इन्हें प्यार से लोग-बाग इसी नाम से पुकारते थे और आज भी पुकारते हैं) ने अपने कैमरे में अपनी पहली फ़िल्म को कैद किया. फ़िल्म का नाम था ‘मुसाफ़िर’. ये फ़िल्म अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई. इसके बाद उन्होंने अपनी अगली फ़िल्म ‘अनाड़ी’ में राजकपूर को बतौर अभिनेता लिया. इस फ़िल्म ने लोगों की बंद ज़बान को खोल दिया. लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया. ‘अनाड़ी’ फ़िल्म के बाद ऋषि दा का नाम और काम दोनों ही लोगों पर एक प्रभाव छोड़ने लगा. इसके बाद ‘अनुराधा’, ‘आशीर्वाद’, ‘सत्यकाम’ और ‘आनंद’ जैसी फ़िल्मों का निर्देशन कर इन्होंने सिनेमा में अपना योगदान दिया.
कुछ प्रमुख फ़िल्में
अनुराधा (1960)
आनंद (1972)
गोलमाल (1979)
बावर्ची (1972)
नमक हराम (1973)
अभिमान (1973)
बुड्ढा मिल गया (1971)
गुड्डी (1971)
मिली (1975)
सत्यकाम (1969)
चुपके चुपके (1975)
अनाड़ी (1959)
ये फ़िल्में आज भी कल जैसी नहीं लगती, बल्कि इन फ़िल्मों में आज भी आज ही बसता है.
अमिताभ बच्चन, जया बच्चन और गुलज़ार को लाने वाले ऋषि दा
फ़िल्म आनंद के माध्यम से ही गुलज़ार के गानों को एक बड़ी आवाज़ मिली, इसके अलावा अमिताभ बच्चन को भी इसी फ़िल्म से एक पहचान मिली. ‘गुड्डी’ फ़िल्म से जया बच्चन का आना हुआ.
सादगी से भरा सिनेमा
आपको बता दें कि ऋषि दा की फ़िल्में मध्यम परिवारों में पली-बड़ी हैं. इनकी फ़िल्में इनकी तरह ही सादी होती हैं. सादगी से भरे इसी निर्देशन के लिए इन्हें दादा साहब फाल्के और पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया है. रिसर्च करने के दौरान हमें ये बात पता चली कि आमोल पालेकर उनके जीवन के अंतिम क्षणों में उनके बेहद करीब थे.
एक साक्षात्कार के दौरान उन्होंने बताया कि, “ऋषि दा कभी भी निर्देशक के तौर पर अपना प्रभाव जमाने की कोशिश नहीं करते थे. वो सिर्फ़ सीधे-साधे तरीके से कहानी कहने में यक़ीं करते थे. वो कलाकारों के लिए बेहद सहज माहौल बना देते थे, जिससे सभी को ऐक्टिंग करते समय बड़ी आसानी होती थी. इसके अलावा वो निर्माता के लगे पैसों का भी विशेष रूप से ध्यान रखते थे.”
अपने और अपनी फ़िल्मों के बारे में एक बार ऋषि दा ने कहा था कि, “परदे पर किसी जटिल दृश्य के बजाय साधारण भाव को चित्रित करना कहीं अधिक मुश्किल काम है. इसीलिए मैं इस तरह के विषय में अधिक रुचि रखता हूं. मैं अपनी फ़िल्मों में संदेश को मीठी चाशनी में पेश करता हूं, लेकिन हमेशा इस बात का ध्यान रखता हूं कि इसकी मिठास कहीं कड़वी न हो जाए.” उनकी इस बात से सिनेमा को लेकर संजीदगी भरी उनकी सोच ज़ाहिर होती है. अपनी फ़िल्मों को हमारे साथ ज़िंदा छोड़ ऋषि दा ने 27 अगस्त 2006 को दर्शकों से विदा ले ली.