एक समाज को अलग-अलग समय पर अलग-अलग चीज़ें Affect करती हैं. ये उसका Nature है कि वो उन धारणाओं के हिसाब से स्टैंड लेता है. फ़ेमिनिज़्म पर भी समाज का एक स्टैंड है. इसमें कई विचारधाराए हैं, कोई इसके पक्ष में हैं, कोई इसके विपरीत.

मगर क्या हम वाकई असली Feminism यानि नारीवाद को समझते हैं? ये सवाल दोनों (इसके पक्ष और विरोध) से है. क्योंकि ये मुद्दा तो उठ गया, लेकिन कुछ ही लोग हैं जो शायद सच में Feminism यानि नारीवाद को समझ पाए हैं. कोई इसे सेक्स से जोड़ता है, तो किसी के लिए ये विवादास्पद मुद्दा है.

क्या भारत के लिए नया है फ़ेमिनिज़्म?
चलिए आज बात करती हूं उस फ़ेमिनिज़्म की, जो हमारे देश के कण-कण में बसा है. जिसे फ़िल्मों में उतारने की कोशिश तो कई बार की गई, लेकिन शायद लोग इसे समझ नहीं पाए. हम उस देश, उस समाज में रहते हैं, जिसे ‘भारत माता’ कहा जाता है. यहां पर ऐसी वीरांगनाएं हुई हैं, जिन्होंने अपने पराक्रम से इतिहास रच दिए. वो वीरांगनाएं जिन्होंने समय-समय पर कभी प्यार, परिवार और देश के लिए ख़ुद का बलिदान कर दिया. एक तरह का Feminism यानि नारीवाद ये भी था.


कहते हैं फ़िल्में समाज का आईना होती हैं. उस आईने में कई बार औरत के इस रूप को उतारने की कोशिश की गई है. फिर चाहे वो बैंडिट क़्वीन, पार्च्ड, लिपस्टिक अंडर माय बुर्क़ा या फिर मनमर्ज़ियां जैसी फ़िल्में क्यों ना हों. इन फ़िल्मों की कहानी की एक-एक कहानी अपने आपमें नारीशक्ति को दर्शाती है. इन सभी फ़िल्मों में उनकी परिस्थिति, सपनों और अपनों के बीच की लड़ाई दिखाने की कोशिश की गई है. मगर इन कहानियों को भी लोगों के सामने सेक्स के साथ पेश किया जाता है. ऐसा क्यों होता है इतने सशक्त मुद्दों को भी हल्का करके क्यों पेश किया जाता है?


एक सिनेमा वो भी था, जिसमें मदर इंडिया, बंदिनी, ज़ख्म, पिंजर और लज्जा जैसी फ़िल्में बनती हैं. इनमें भी तो Feminism यानि नारीवाद दिखाया गया है. सिर्फ़ सशक्त नारीवाद न कि झलकता हुआ बदन.


ये जो Feminism यानि नारीवाद आजकल की फ़िल्मों में चला है, वो हमारा नहीं है उसे शायद हमने सिर्फ़ पैसे कमाने के लिए उधार लिया है. आज के समाज की विडंबना यही है कि हर सीढ़ी को चढ़ने की क़ीमत एक लड़की ही चुकाती है और उसे नाम दे दिया जाता है Feminism यानि नारीवाद का. बिना उसका सही मतलब जाने.

इसका कारण ये हो सकता है कि सिर्फ़ सपने बेचना बहुत मुश्क़िल होता है, लेकिन अगर एक औरत को कम कपड़ों के साथ दिखाया जाता है तो कहानी बिके ना बिके, फ़िल्म ज़रूर बिक जाती है और उसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होती. ये कैसे लोग हैं जो जींस पहनने पर एक लड़की का कैरेक्टर डिसाइड कर देते हैं मगर फ़िल्मों में उनको ये मंज़ूर है?

कहीं न कहीं ये ग़लती शायद हम ही कर रहे हैं जो लोगों को मौका दे रहे हैं, ख़ुद के साथ खिलवाड़ करने का. एक बात जान लो युग कोई भी हमेशा एक औरत ने अपने औरत होने का उसकी शक्ति का प्रमाण दिया है जिसके आगे इंसान तो नहीं झुका, लेकिन भगवान ज़रूर झुक गए.

औरत कोई प्रोडक्ट नहीं है, जिसे जब चाहा बेच लिया, ख़रीद लिया, लेकिन फ़ेमिनिज़्म ज़रूर बिज़नेस बन गया है.