आज का बॉलीवुड पुराने दौर के बॉलीवुड से बहुत अलग है. आज बहुत हद तक रियलस्टिक फ़िल्में बनाई जाती हैं. लेकिन पुराने दौर में ऐसा नहीं था. उस दौर में कई ऐसी फ़िल्म बनी हैं, जिनमें हर तरह के लॉजिक को तोड़ दिया गया. साइंस को भी साइंस से विश्वास उठ जाए, आज ऐसी बे-लॉजिक फ़िल्मों की लिस्ट लेकर आए हैं, जिसमें हीरो को हीरो बनाने के लिए उसे हर हाल में ज़िंदा कर दिया.

मां तुझे सलाम  

सनी देओल स्टारर इस फिल्म के अंत में सनी को तीस गोलियां लगती हैं, जिसे कुछ पल में ही गोली निकाल कर बचा लिया जाता है और थोड़ी ही देर में सनी उठ कर तिरंगे को सलाम भी करते दिखाए गए हैं. बॉलीवुड अगर थोड़ा लॉजिक लगा लेता तो हमारा बचपन ऐसी फ़िल्मों को देख कर बर्बाद न होता  

दिलजले  

बोला ना 90 का दशक फ़िल्मों के लिए अजीब था. इस फ़िल्म के भी अंत में अजय देवगन को गोली की जगह बम लगता है, लेकिन ये भी सनी पाजी की तरह थोड़ी देर में सही हो कर खड़े हो जाते हैं. अरे भाई! ये हीरो की बहादुरी है या फिर बॉलीवुड के डॉक्टर ने कोई नई तकनीक निकाली है ये हमें आज भी कोई समझा दे तो बहुत मेहरबानी होगी  

दिया और तूफ़ान  

अब भाई इस फ़िल्म ने तो लॉजिक की सारी हदें पार कर दी थीं. मिथुन स्टारर इस फ़िल्म में हीरो की मौत के बाद उसे ज़िंदा करने के लिए उसका दिमाग़ बदल दिया जाता है. हां भाई हां, सही सुना और इतना ही नहीं, जिसका दिमाग़ सर्जरी करे लगाया जाता है उसकी पुरानी यादें और बाते भी उन्हें याद होती हैं. सोचो दिमाग़ को हार्ड ड्राइव की तरह इस्तेमाल सिर्फ़ बॉलीवुड में ही हो सकता है.  

तुम मेरे हो  

इस लिस्ट में मुझे आमिर खान का होना थोड़ा ज़्यादा दर्द देता है. फ़िल्म के पहले ही सीन में बच्चे को सांप काट लेता है, जिससे उसकी मौत हो जाती है. लेकिन बच्चे को नदी में बहा दिया जाता, बहते हुए बच्चे का शरीर एक सपेरे को मिलता है और वो अपनी पूजा से मरे हुए बच्चे को ज़िंदा कर देता है. बड़े हो कर वही बच्चा हीरो यानि आमिर खान बनता है. बताईए, अब इस फ़िल्म में कोई लॉजिक दिखा आपको?  

क्लर्क

अब आपको लग रहा होगा कि सिर्फ़ 90’s की फ़िल्मों की ये हालत थी.. नहीं, ये लॉजिक से दूर रहना बॉलीवुड की पुरानी बिमारियों में से एक रही है. क्लर्क नाम की फ़िल्म में अशोक कुमार को दिल का दौरा पड़ता है, लेकिन वो तुरंत सही हो जाते हैं, पता है कैसे, क्योंकि उनके रेडियो की बैटरी को बदल कर उसमें एक देश भक्ति का गाना चला दिया जाता है और ये महान काम करता कौन है? भारत कुमार, मतलब हमारे मनोज कुमार साहब. सोचिए ऐसे अगर दिल के इलाज होने शुरू हुए तो हॉस्पिटल की जगह बैटरी की दुकानों पर भीड़ हो जाएगी.  

ये तो हुईं वो फ़िल्में जिन्हें बॉलीवुड ने लॉजीक को घर पर रख कर बनाया था. आपको भी अगर कुछ ऐसी फ़िल्में याद हों तो हमें कमेंट बॉक्स में लिख कर ज़रूर बताएं और हां अपने दोस्तों के साथ इस पोस्ट को ज़रूर शेयर करें. आख़िर दोस्ती में भी तो लॉजिक नहीं होता.