80 के दशक को हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री के सबसे बुरे दौर में से एक माना जाता है. हालांकि हिंदी फ़िल्मों में अच्छी कहानी की कमी हमेशा से रही है, लेकिन इस दौर में बुरी स्क्रिप्ट पर फ़िल्में ज़्यादा बन रही थी. हालांकि सिर्फ़ ये एक प्रॉब्लम नहीं थी, फ़िल्में पाइरेसी का शिकार हो रही थीं, हिन्दी सिनेमा अन्य भाषा की फ़िल्मों को धड़ल्ले से कॉपी कर रहा था, बॉलीवुड में अंडरवर्ल्ड का पैसा आना शुरू हो गया था. 80 के दशक में बन रहे फ़िल्मों में हिंसा के इस्तेमाल से यश चोपड़ा इस कदर अगुता गए थे कि उन्होंने ने इस दशक को ‘हिंसा का चरम स्तर’ तक कह दिया था. हालांकि 80 का दशक जब अपने अंतिम पड़ाव की ओर बढ़ रहा था, तब उसने बॉलीवुड को कुछ ऐसा दिया, जिस वजह से उसकी सभी बुराइयों को माफ़ किया जा सकता है. 1987 में शेखर कपूर की Mr. India रिलीज़ हुई और दर्शकों के दिल-ओ-दिमाग़ पर छा गई.

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Mr. India

जब ये फ़िल्म पर्दे पर आई, तब भारतीय सिनेमा और समाज बदलाव के लिए जूझ रहा था. देश में गंभीर रूप से गरीबी और आर्थिक असमानता बढ़ रही थी. जिसे फ़िल्म में कई परिस्थितियों के ज़रिये दिखाया गया है. मिस्टर इंडिया कई मायनों में अपने दौर से एक अलग फ़िल्म थी. इसके बावजूद उसमें ऐसे कई तत्व थे, जो लीक का ही हिस्सा थे. फ़िल्म का मुख्य किरदार कोई अत्यधिक बलशाली व्यक्ति नहीं थी, उसकी शक्ति का स्रोत उसकी घड़ी थी. इसे पहली Sci-Fi फ़िल्म तो नहीं कहा जा सकता है लेकिन ये पहली फ़िल्म थी जिसे दर्शकों ने इतना सराहा. इसे हिट कराने के लिए कमर्शियल एंगल का भी सहारा लिया गया. जैसे भावुकता को भुनाने के लिए फ़िल्म में ढेर सारे बाल कलाकार मौजूद थे. फ़िल्म की शुरुआत में एक गाना है, जिसमें मुख्य किरदार की मासूमियत दिखती है, वहीं एक दूसरा गाना ‘काटे नहीं कटते दिन ये रात’ एक सेंशुअल गीत है.

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मिस्टर इंडिया के वक्त टेक्नॉलिजी भारत के लिए नई चीज़ थी. तब लोग मुश्किल से टीवी, रेडियो और टेलिफ़ोन को जानते थे. कंप्युटर और मोबाइल फ़ोन बुहत दूर की चीज़ थी. इस फ़िल्म में तकनीक को भी प्रमुखता दी गई. कुल मिला कर फ़िल्म में मौजूद सारे तत्व सही मात्रा में थे, जिसकी तलाश में एक भारतीय दर्शक थियेटर जाता है. थोड़ा नयापन, थोड़ा पुराना आज़माया मसाला, अच्छे गीत, एक गुंडा, एक हीरो…

मिस्टर इंडिया का बॉलीवुड में योगदान

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मिस्टर इंडिया साल 1987 की सबसे कमाऊ फ़िल्म थी. आज इसे कल्ट का दर्जा प्राप्त है. इस फ़िल्म को लोग रेफ़रेंस के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. श्रीदेवी द्वारा पहनी गई ब्लू साड़ी, अनिल कपूर की टोपी, अमरीश पुरी का आइकोनिक डायलॉग और भी बहुत कुछ. ‘हवा-हवाई’ ने श्रीदेवी को नई पहचान दी. आज भी कोई बहुत ख़ुश होता है, तो नाटकीय रूप से कह ही देता है, ‘मोगैंबो ख़ुश हुआ’.

यादगार किरदार

वैसे तो फ़िल्म का नाम मिस्टर इंडिया था. लेकिन श्रीदेवी ने दर्शकों और आलोचकों को इतना प्रभावित कर दिया था कि लोग मज़ाक में इसे ‘मिस इंडिया’ कहने लगे थे. मूवी के एक सीन में श्रीदेवी की चार्ली चैप्लिन की नकल देखने वाले को आज भी गुदगुदा देगी.

सतीश कौशिक ने ‘कैलेंडर’ के किरदार में सबका ख़ूब मनोरंजन किया. अन्नू कपूर बेहद छोटे रोल में भी प्रभावी थे. ‘मोगैंबो’ तो सदा के लिए अमर हो गया. मिस्टर इंडिया के चाइल्ड आर्टिस्ट भी अभिनय के मामले में कमाल कर गए.

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मिस्टर इंडिया को याद रखने के कई कारण हैं. लेकिन इसे सलीम-जावेद की आखिरी फ़िल्म के रूप में भी याद किया जाएगा. हालांकि उनकी जोड़ी इस फ़िल्म के पहले ही टूट गई थी, किंतु दोनों इस फ़िल्म के लिए आखरी बार साथ आए थे. शेखर कपूर की ये दूसरी फ़िल्म थी.

इस फ़िल्म के मुख्य किरदार के लिए सलीम-जावेद की पहली पसंद अमिताभ बच्चन थे, एक वक्त पर राजेश खन्ना से भी बात हुई थी. लेकिन अंत में ये फ़िल्म अनिल कपूर की झोली में गई.

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बॉलीवुड में जब बड़ी से बड़ी फ़िल्में 50 लाख के भीतर बन जाया करती थीं, तब मिस्टर इंडिया को बनाने में 3.4 करोड़ रुपये लगे थे. श्रीदेवी पहले ही इंडस्ट्री की सबसे महंगी अभिनेत्री थीं, इस फ़िल्म के लिए श्रीदेवी को 11 लाख का भुगतान किया गया था, तब तक किसी भारतीय अभिनेत्री को इससे ज़्यादा मेहनताना नहीं मिला था.

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फ़िल्म लिखे जाने के बाद मोगैंबो के किरदार का ख़ाका तैयार किया गया था. बोनी कपूर बताते हैं कि इसका आइडिया भी किसी तरह सलिम-जावेद को अमिताभ बच्चन के एक कार्यक्रम से आया था.

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2012 में बोनी कपूर ने घोषणा की था कि वो पार्ट टू बनाने में इंट्रेस्टेड हैं. कहानी के ऊपर काम शुरु भी हो चुका था. ख़बरे आ रहीं थी कि सलमान ख़ान और अर्जुन कपूर निगेटिव रोल प्ले करेंगे. मुख्य किरदारों में अनिल कपूर और श्रीदेवी ही रहेंगे. लेकिन श्रीदेवी की असामयिक मौत के बाद अब शायद ही मुमकिन है कि मिस्टर इंडिया दोबारा से पर्दे पर आए.