ज़िंदगी एक रंगमंच है. यहां लोगों का आना-जाना हंसना-रोना, रूठना-मनाना लगा रहता है. इस रंगमंच का असली मज़ा वही लोग ले पाते हैं, जो इसे जीते हैं. हर पल महसूस करते हैं. अपनी बात को लोगों तक पहुंचाने का सबसे बड़ा माध्यम सिनेमा है. सिनेमा जो फ़िल्मों से शुरू होता है और आपके अंदर जीवंत अहसास पर जाकर ख़त्म होता है.

फिल्मों ने हमें प्यार, रोमांस, ऐक्शन और लटकों-झठकों के अलावा भी बहुत कुछ सिखाया है. ऐसी ही चंद फ़िल्मों में मुन्ना भाई MBBS है. राजू हिरानी द्वारा निर्देशित 2003 में रिलीज़ हुई ये मूवी बेहद मंनोरजंक फ़िल्मों में से एक है. संजय दत्त और अरशद वासी की बेहतरीन जुगलबंदी न सिर्फ़ दर्शकों को हंसाने-गुदगुदाने में कामयाब रही, बल्कि इस फ़िल्म ने लोगों को ज़िंदगी जीने का एक नया अंदाज़ भी सिखाया.

आइए जानते हैं कि इस फ़िल्म से हम क्या-क्या सीख सकते हैं.

1. ‘खुल कर जीना’

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आज के दौर में सबसे मुश्किल काम है ‘खुल कर जीना’. हम से कई लोग खुलकर अनोख़े अंदाज़ में ज़िंदगी जीने की चाहत रखते हैं, लेकिन बस ज़माने की सोच कर वो अपने कदम पीछे खींच लेते हैं. वहीं मुन्ना भाई में संजय दत्त बिना ज़माने की परवाह किए हुए, लोगों को ज़िंदगी जीने की सीख देते हुए नज़र आते हैं.

2. ‘जादू की झप्पी’

पूरी फ़िल्म में अगर सबसे कमाल की कोई चीज़ है, तो वो है ‘जादू की झप्पी’. फ़िल्म हमें सिखाती है कि ज़िंदगी में कोई आपसे कोई कितना ही नाराज़ क्यों न हो, बस छोटी सी जादू की झप्पी देकर सब कुछ सही किया जा सकता है.

3. ‘कोई इंसान छोटा नहीं होता’

अकसर देखा जाता है कि लोग अपने से औहदे में छोटे इंसान के साथ काफ़ी भेदभाव कर उन्हें ज़लील करने की कोशिश करते हैं, लेकिन वहीं फ़िल्म में संजू बाबा ने सफ़ाई कर्मचारी को गले लगाकर साबित कर दिया कि कोई भी शख़्स छोटा-बड़ा नहीं होता. साथ ही कुछ भी बनने से पहले इंसान का इंसान बनना ज़रूरी है.

4. ‘ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा’

फ़िल्म का वो सीन याद है आपको, जिसमें डॉक्टर बनी ग्रेसी सिंह अपने पेशेंट यानि, जिमी शेरगिल को ये बताती हैं कि उन्हें कैंसर है और अब वो सिर्फ़ चंद दिनों के मेहमान हैं. इसके बाद जिमी हताश होकर बाहर चले जाते हैं. जब ये बात मुन्ना भाई को पता चलती है, वो जिमी को बचे हुए पलों में पूरी ज़िंदगी खु़ुशी के साथ जीने के लिए कहते हैं.

5. ‘मां-बाप कभी साथ नहीं छोड़ते’

मूवी का वो सीन याद करिए जिसमें एक लड़का गर्ल फ़्रेंड से ब्रेकअप होने के बाद ज़हर खा कर आत्महत्या करने की कोशिश करता है, जिसके बाद उसकी मां उसे इलाज के लिए हॉस्पिटल लेकर आती है. बेटे की हालात ख़राब देख मां की आंखों से आंसुओं की गंगा बहने लगती है और मुन्ना भाई को ये बात बिल्कुल पसंद नहीं आती, जिसके बाद वो उस लड़के को समझाते हैं कि अगर तुम्हें कुछ हो जाता, तो सोचा है कि तुम्हारी मां का क्या होता? ये सच है कि दुनिया में मां-बाप से बढ़कर कोई और नहीं होता.

6. ‘ग़लती स्वीकारने में शर्म कैसी?’

फ़िल्म में दिखाया गया है कि कैसे संजय दत्त अपने माता-पिता को धोख़े में रख कर, उनके सामने डॉक्टर बन कर मरीज़ों की सेवा करते हैं. वहीं जब उनके पिता के सामने इस बात का खु़साला होता है, तो वो काफ़ी आहत होकर गांव वापस लौट जाते हैं, फिर मुन्ना भाई को अहसास होता है कि उसने अपने माता-पिता से झूठ बोल कर अच्छा नहीं किया. वो अपनी ग़लती स्वीकार कर अपने माता-पिता से माफ़ी मांगते हैं. इसीलिए अगर आपसे कोई ग़लती हो भी गई है, तो उसे स्वीकार तुरंत माफ़ी मांग लेनी चाहिए.

7. ‘हमेशा खु़श रहना चाहिए’

आज के वक़्त में हर इंसान की ज़िंदगी में काफ़ी सारी दिक्कतें होती हैं. फ़र्क बस इतना है कि हम से कई लोग इसका सामना हंस कर करते हैं, तो कई लोग हार मान कर बैठ जाते हैं. कुछ ऐसी उलझनें मुन्ना भाई की ज़िंदगी में थीं, लेकिन वो हर मुसीबत का सामना ख़ुशी से करता नज़र आया. इतना ही नहीं, वो खु़द तो ख़ुश रहता ही था, साथ ही वो अपने आस-पास मौजूद लोगों को भी ख़ुश रखने की कोशिश करता था.

8. ‘दोस्ती हो तो ऐसी’

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पूरी फ़िल्म में अगर कोई शख़्स था जो हर वक़्त संजय दत्त के साथ रहता था, तो वो थे अरशद वारसी. इन दिनों की जोड़ी ने दर्शकों का दिल तो जीता ही, साथ ही लोगों को ये मैसेज भी दिया कि ज़िंदगी में भले एक जिगरी दोस्त बनाओ, लेकिन ऐसा बनाओ कि वक़्त चाहे जैसा भी हो, वो आपके साथ खड़ा नज़र आए.

अगर आपने अब तक ये फ़िल्म नहीं देखी, तो आज ही देख डालिए.

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