बी. आर. चोपड़ा की गिनती बॉलीवुड के दिग्गज फ़िल्म मेकर्स में की जाती है. उन्होंने हिंदी फ़िल्मों और टीवी सीरियल्स को नई ऊंचाई तक पहुंचाया था. उनके द्वारा निर्देशित ऐतिहासिक सीरियल महाभारत को देखने के लिए आज भी लोग एक्साइटेड रहते हैं. उनका असली नाम बलदेव राज चोपड़ा था. उन्होंने हिंदी सिनेमा को ‘नया दौर’, ‘गुमराह’, ‘हमराज़’, ‘क़ानून’, ‘साधना’, ‘बागबान’, ‘बाबुल’ जैसी कई सुपरहिट फ़िल्में दी हैं.

ये सभी फ़िल्में बताती हैं कि वो किस दर्जे के फ़िल्मकार थे. मगर बचपन में उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि वो इतने बड़े डायरेक्टर बनेंगे. उनका सपना कुछ और था. आइए जानते हैं बी. आर. चोपड़ा के उस सपने के बारे में जो अधूरा रह गया था.   

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बी.आर. चोपड़ा पढ़ने-लिखने में बहुत अच्छे थे. उन्होंने पाकिस्तान की लुधियाना यूनिवर्सिटी से अंग्रेज़ी में एम.ए. की डिग्री ली थी. उनकी दिली इच्छा थी कि वो आई.सी.एस. (अब आई.ए.एस.)का एग्ज़ाम दें और सरकारी अफ़सर बनें. उनकी एम.ए. में डिस्टिंक्शन आई थी. इसलिए उन्हें यूनिवर्सिटी की तरफ से आई.सी.एस के एग्ज़ाम के लिए चुन लिया गया था.

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मगर परीक्षा के कुछ दिनों पहले उन्हें टाइफ़ाइड हो गया. डॉक्टर्स ने उन्हें बेड रेस्ट करने को कहा था. बी. आर. चोपड़ा डॉक्टर्स की सलाह को नज़रअंदाज़ करते हुए पहला पेपर देने पहुंच गए. पेपर के सभी 18 सवालों के जवाब दिए. मगर इसके बाद वो बहुत ज़्यादा बीमार हो गए. इसलिए वो दूसरा पेपर नहीं दे सके. 

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इससे बी.आर. चोपड़ा बहुत दुखी हुए. उन्होंने तभी तय किया कि अगर वो सबसे ऊंचे दर्जे की सरकारी नौकरी नहीं कर पाए तो दूसरे या तीसरे दर्जे की सरकारी नौकरी नहीं करेंगे. इसके बाद वो सरकारी नौकरी का ख़्याल छोड़कर लाहौर में इंग्लिश जर्नलिस्ट बन गए. बंटवारे के बाद वो दिल्ली चले आए और यहां से पहुंचे मुंबई.

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यहां उन्होंने फ़िल्म जर्नलिस्ट के तौर पर काम करना शुरू कर दिया. फ़िल्मी दुनिया में काम करते हुए ही उन्होंने फ़िल्में बनाने की ठानी. ऐसी फ़िल्में जो ऊंचे दर्जे की हों, वक़्त के साथ मेल खाती हों. हुआ भी ऐसा. उन्होंने फ़िल्मों में ख़ूब नाम कमाया और 1998 में उन्हें फ़िल्मों के सबसे बड़े पुरस्कार दादा साहब फाल्के अवॉर्ड से सम्मानित भी किया गया. बी.आर. चोपड़ा से जुड़ा ये क़िस्सा आप यहां सुन सकते हैं.

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