ओ पापड़ वाले, पंगा न ले. थप्पड़ बजेगा पंगा न ले. प प प पंगा न ले…
उंगली दबाके अंगूठा बना दुंगी टाउं टाउं…
इस गाने से जुड़ी बचपन की एक घटना याद आ रही है. ये गाना गुनगुनाते हुए मैं बालकनी में टहल रही थी. पापा ने सुना और पूछा कि ये किस फ़िल्म का गाना है. मैंने बताया, ‘मकड़ी’, बच्चों के लिए फ़िल्म आई है. पापा ने फिर ख़ुद से ही कहा, ‘चलो सब देखते हैं.’
तब तक मुझे ये नहीं पता था कि ये हॉरर फ़िल्म है. फ़िल्म की सीडी आ गई और हम सब टीवी के सामने बैठ गए. शुरू-शुरू में तो सब ठीक था लेकिन जैसे ही चुड़ैल का ज़िक्र हुआ, पापा ने कहा ‘बस हो गया ये बच्चों की फ़िल्म नहीं है, हॉरर फ़िल्म है. नहीं देखनी है.’ मैंने बहुत बार कहा पापा पूरी देखने दो यार, काफ़ी देर प्लीज़, प्लीज़ के सिलसिले के बाद पापा माने.
डरते-डरते, मम्मी का आंचल पकड़े(काफ़ी छोटी थी भाई, डर लगा था तब) मैंने ये फ़िल्म देखी. अब बड़ी हो गई हूं और ये फ़ुल कॉन्फ़िडेंस के साथ कह सकती हूं कि चाहे कितनी भी बच्चों की फ़िल्में जाएं, ‘मकड़ी’ के लिए दिल में अलग जगह रहेगी.
चाहे वो ‘Leg Piece’ को ‘पैर’ कहने वाले चुन्नी-मुन्नी के पापा हों. या चुड़ैल के रूप में दिखी शबाना आज़मी हो, इस फ़िल्म के हर किरदार ने कमाल किया था.
मैंने ये फ़िल्म देखकर ‘चॉकलेट’ को ‘चाकलेट’ कहना शुरू कर दिया था. मुझे लगा था कि चुन्नी का तरीका सही है.
चुन्नी शरारती, मसख़रेबाज़ और पढ़ने में नालायक. अक़सर वो मुन्नी बनकर दूसरों को बेवकूफ़ बनाती लेकिन हर बार बच निकलती. सभी उसकी शरारतों से परेशान रहते लेकिन फ़िल्म के अंत में उसी को हीरो दिखाया जाता है.
मुझे किताबों का ज़्यादा शौक़ है, बचपन में भी था लेकिन चुन्नी को देखकर मुझे ये भी लगता कि मैं अगर पढ़ने-लिखने में लगी रही तो ज़िन्दगी से Adventure गायब हो जाएगा. साफ़ शब्दों में कहा जाए तो एक असमंजस में डाल दिया था फ़िल्म ने. जब फ़िल्म आई थी तब मैं 9-10 साल की थी, तो सारा Thought Process उसी के हिसाब से चल रहा था. अब सोचकर हंसी आती है.
‘मकड़ी’ के रूप में जब पहली बार शबाना जी स्क्रीन पर दिखी थी तो चीख निकलते-निकलते रह गई थी. फ़िल्म में वो सबकुछ है जो किसी भी बच्चे का मन मोह ले. चाहे वो दो बहनों का प्यार-तकरार हो या फिर मुग़ल-ए-आज़म जैसा जिगरी दोस्त या फिर गांव की गलियां.
फ़िल्म में कई उतार-चढ़ाव आते हैं और अंत में पता चलता है कि चुड़ैल जैसी कोई चीज़ थी ही नहीं. ये जानकर दुख और ख़ुशी दोनों हुई थी क्योंकि मैंने दादीघर में गांव के सबसे आख़िर में बसे बंद घर की छान-बीन कर चुड़ैल देखने का प्लैन बना लिया था. वो भी एक दौर था, फ़िल्म देखते-देखते साइड-बाई-साइड प्लैनिंग चलती रहती थी.
बड़े होने के बाद, अभिनय, डायरेक्शन, स्टोरी जैसी चीज़ें भी होती हैं ये पता चला. विशाल भारद्वाज ने क्या चीज़ बनाई थी यार! बचपन की इच्छाओं को हवा देने वाली. और अब यक़ीन करना मुश्किल होता है कि शबाना आज़मी चुड़ैल जैसे किरदार को भी इतना बेहतरीन बना सकती हैं. श्वेता बासु पंडित ने तो हर बच्चे के अंदर की ‘चुन्नी’ को हवा दी थी. रिलीज़ होने के इतने साल बाद भी ‘मकड़ी’ हमारे लिए स्पेशल फ़िल्म है और चाहे कितनी भी बढ़िया फ़िल्म आए, इसकी जगह कोई नहीं ले सकता.