1979 में हृषिकेश मुखर्जी की फ़िल्म आयी थी, ‘गोलमाल’. फ़िल्म में अमोल पालेकर की एक्टिंग के सभी दीवाने हो गए थे. उन्होंने दो ऐसे किरदार निभाये थे, जो एक-दूसरे से बिलकुल उलट थे. मुझे अमोल पालेकर के साथ-साथ उनकी नकली मां बनीं, दीना पाठक की एक्टिंग बहुत पसंद आयी थी और ये फ़िल्म आज भी मेरी सबसे पसंदीदा फ़िल्मों में से एक है.
लेकिन इस फ़िल्म के लिए चाहत इन किरदारों की वजह से नहीं थी, बल्कि उस बॉस की वजह से थी, जो बात-बता पर ईईईश बोलता था. मुझे ये फ़िल्म उत्पल दत्त की वजह से पसंद है. मेरी तरह कई सिनेमा लवर्स के लिए उत्पल दत्त, गोलमाल के उसी बॉस के रूप में सामने आते होंगे, जो अपनी मूंछों से बड़ा प्यार करता था. उसकी आवाज़ में कभी एकदम से कड़की आ जाती, तो परेशानी देख कर मोम-सा पिघल जाता.
लेकिन उत्पल दत्त को सिर्फ़ हृषिकेश मुखर्जी और बासु चटर्जी की हिंदी फ़िल्मों से तोलना, इस महान कलाकार का अपमान माना जाएगा. उत्पल दत्त, उस दर्जे के कलाकार थे, जिन्होंने जब थिएटर में शेक्सपियर के Othello का रोल किया, तो उसके चर्चे भारत से पाकिस्तान जा पहुंचे.
बांग्ला फ़िल्मों के चैंपियन
दत्त साहब ताउम्र इस बात पर ज़ोर देते रहे कि थिएटर की पहचान सामाजिक और राजनितिक विषयों में समावेश बांध कर, उन्हें प्रस्तुत करने की है. अगर थिएटर ऐसा नहीं कर पाता, अगर वो समाज की आंख नहीं बन पाता, तो वो थिएटर किसी काम का नहीं. उनकी इसी सोच को साथ मिला सत्यजीत रे के डायरेक्शन का.
सत्यजीत रे ने अपने जीवन की आखरी फ़िल्म, ‘आगंतुक’ डायरेक्ट की, तो उसके मनमोहन मित्रा के कॉम्प्लेक्स रोल को निभाने के लिए रुख किया, उत्पल दत्त की ओर. ये किरदार उत्पल दत्त के बॉलीवुडिया हंसमुख अंकल वाले कैरेक्टर से बिलकुल अलग था. वो एक ऐसे आदमी बने थे, जो अपने नए परिवार के लिए एक मिस्ट्री था. इस रोल के लिए एक दम्भी, इंटेलेक्चुअल आदमी बनना था और दत्त साहब ने इस रोल को ऐसा निभाया कि आज तक उनकी बेहतरीन अदाकारी की चर्चा इस फ़िल्म से शुरू होती है.
सत्यजीत रे और उत्पल दत्त की ये पार्टनरशिप कई और फ़िल्मों में दिखी, जैसे जोई बाबा फ़ुलकनाथ, हीरक राजेर देशे.
हिंदी फ़िल्मों के हंसमुख और प्यारे अंकल
बंगला सिनेमा में जहां उत्पल दत्त ने सत्यजीत रे के साथ कल्ट क्लासिक फिल्में दीं, वहीं हिंदी सिनमा में उनका Soft Side सामने आया. गुड्डी, नरम-गरम, शौक़ीन, गोलमाल से उनकी छवि एक ऐसी अभिनेता की बनी, जो अपनी अच्छी एक्टिंग से गुदगुदाता था. वो हंसता, तो हम मुस्कुराते, वो गुस्सा होता, तो हम खिलखिलाते. शायद यहीं हमने एक ग़लती कर दी, उन्हें Typecast करने की. हिंदी दर्शकों को दत्त साहब का एक ही साइड दिखा, चश्मे पहने हुए ‘अंकल’ का व्यक्तित्व. हालांकि इसे एक तरह से एक एक्टर के रूप में उनकी कामयाबी ही कहेंगे, कि वो दो अलग समाज के चहेते बन गए.
ये एक बेहतरीन एक्टर की निशानी नहीं तो और क्या है?
ये बात अगर आप उनकी किसी बंगाली Fan को बोलेंगे, तो वो तिलमिला उठेगा, क्योंकि उत्पल दत्त को बांग्ला सिनेमा में वो दर्जा प्राप्त है, जो हिंदी सिनेमा में कैफ़ी आज़मी और पृथ्वीराज कपूर को मिलता है.
एक बेहतरीन एक्टर, डायरेक्टर, Writer-Playwright, उत्पल दत्त उस पानी की प्रबल धारा की तरह थे, जो जहां गयी, उस सांचे की सूरत बन गयी.