भारतीय सिनेमा की सबसे सफ़ल फ़िल्म ‘बाहुबली’ फ़ेम निर्देशक एस.एस. राजामौली की मोस्ट अवेटेड फ़िल्म RRR (Rise Roar Revolt) 7 जनवरी, 2022 को रिलीज़ होने जा रही है. फ़िल्म के ट्रेलर से ही आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि राजामौली ने न केवल फ़िल्म के तकनीकी पहलूओं पर बड़े लेवल पर काम किया है, बल्कि साउथ के सुपरस्टार राम चरण (अल्लूरी सीताराम राजू) और जूनियर एनटीआर (कोमाराम भीम) के ज़रिये भारत के उस स्वर्णिम इतिहास को दिखाने की कोशिश की है जो कई मायनों में प्रेरणादायक है. राजामौली ने इस फ़िल्म के ज़रिये ये बताने की कोशिश भी की है कि हमारा अतीत हमेशा से ही ऐतिहासिक एवं गौरवशाली रहा है.
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इस फ़िल्म में साउथ सिनेमा के दो बड़े सितारे राम चरण और जूनियर एनटीआर लीड में नज़र आ रहे हैं. फिल्म में जहां राम चरण ने स्वतंत्रता सेनानी ‘अल्लूरी सीताराम राजू’ का किरदार निभाया है. वहीं साउथ के एक्शन स्टार जूनियर एनटीआर ने ‘कोमाराम भीम’ के किरदार में नज़र आएंगे. इस फ़िल्म में आलिया भट ने सीता का किरदार निभाया है, जबकि अजय देवगन भी एक अहम किरदार में दिखाई देने वाले हैं.
बता दें कि निर्देशक राजामौली की ये फ़िल्म भारतीय इतिहास के 2 रियल लाइफ़ हीरोज़ ‘अल्लूरी सीताराम राजू’ और ‘कोमाराम भीम’ की ज़िंदगी पर आधारित है. भारतीय इतिहास में भले ही ‘अल्लूरी सीताराम राजू’ और ‘कोमाराम भीम’ के नाम देखने को नहीं मिलते हैं, लेकिन इनके बारे में जान लेना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि ये दोनों हीरोज़ कुछ ऐसा कर गये जिसका ज़िक्र भारतीय इतिहास के किसी कोने में दफ़्न होकर रह गया. ब्रिटिशकाल के इन दो हीरोज़ की बहादुरी से प्रभावित होकर निर्देशक राजामौली ने 5 साल पहले तमिल फ़िल्म RRR बनाने का फ़ैसला किया था.
चलिए जानते हैं आख़िर कौन थे ‘अल्लूरी सीताराम राजू’ और ‘कोमाराम भीम’?
कौन थे ‘अल्लूरी सीताराम राजू’?
अल्लूरी सीताराम राजू (Alluri Sitarama Raju) ने जो देश के लिए किया उसे शायद ही कोई भुला पाए. अल्लूरी का जन्म 1857 में विशाखापट्टनम में हुआ था. सांसारिक सुख अच्छे नहीं लगे तो वो 18 साल की उम्र में साधु बन गये. इस दौरान ही उन्होंने देश के कई शहरों मुंबई, बड़ोदरा, बनारस, ऋषिकेश की यात्रा की. देश के तमाम युवाओं की तरह ही अल्लूरी सीताराम राजू भी महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित थे.
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सन 1920 के आस-पास अल्लूरी सीताराम राजू ने आदिवासियों को शराब छोड़ कर अपनी समस्याओं को पंचायत में हल करने की सलाह दी. इस समय तक देश अंग्रेज़ों के जुल्मों-सितम का साक्षी बन चुका था. अल्लूरी सीताराम राजू के जीवन पर इसका गहरा असर प्रभाव पड़ा. इसके बाद उन्होंने महात्मा गांधी के अहिंसा के विचारों का त्याग कर अंग्रेज़ों के विरुद्ध संग्राम छेड़ दिया और अपना तीर-कमान लेकर अंग्रेज़ों का सफ़ाया करने के लिए निकल पड़े.
देश की आज़ादी के लिए लड़ते हुए अल्लूरी सीताराम राजू ने अंग्रेज़ों द्वारा दी गयी कई यातनाओं को भी हंसते-हंसते सह लिया था. बावजूद इसके उन्होंने कभी भी अंग्रेज़ों की दमनकारी नीतियों के सामने सिर नहीं झुकाया. सन 1924 में उन्होंने दुनिया को उस वक़्त अलविदा कहा जब ब्रिटिश सैनिकों ने क्रांतिकारी अल्लूरी को पेड़ से बांध कर उन पर गोलियों की बौछार की थी. आज भले ही अल्लूरी सीताराम राजू हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी कुर्बानियों में ऐसा बहुत कुछ है जिससे हमें प्रेरणा ले सकते हैं.
कौन थे कोमाराम भीम?
कोमाराम भीम (Komaram Bheem) का जन्म 1901 में हैदराबाद के संकेपल्ली में हुआ था. वो गोंड समाज से ताल्लुक रखते थे. कोमाराम भीम के जीवन का बस एक ही मकसद था, गुलामी की जंजीरों में जकड़ी भारत मां को आज़ादी दिलाना. भीम जब केवल 19 साल के थे तब निज़ाम सैनिकों ने उनके पिता की हत्या कर दी थी. पिता की मौत से व्याकुल भीम ‘निज़ाम शासन’ को सबक सिखाना चाहते थे, लेकिन वो इतने सक्षम नहीं थे कि निज़ाम शासन से अकेले लड़ सके. युवा अस्वथा में भीम, तेलंगाना के वीर क्रांतिकारी अल्लूरी सीताराम राजू से काफ़ी प्रभावित थे. वो उन्हीं की तरह देश के लिए कुछ कर गुजरना चाहते थे.
इस बीच कोमाराम भीम को भगत सिंह की फांसी की ख़बर मिली, जिससे वो बेहद दुःखी हो गए. इसके बाद भीम ने हैदराबाद से ब्रिटिश के सरपरस्त निज़ामों को खदेड़ने की योजना बनाई और निज़ाम शासन के ख़िलाफ़ विद्रोह का बिगुल फूंक दिया. इस दौरान भीम ने सबसे पहले हैदराबाद की आज़ादी के लिये ‘आसफ़ जाही राजवंश’ के ख़िलाफ़ विद्रोह किया. ‘निज़ाम शासन’ ने कोमाराम भीम को पकड़ने के लिए 300 सैनिकों की सेना भेज दी, लेकिन भीम ने अपनी बहादुरी से निज़ाम सैनिकों का सफ़ाया कर दिया.
इस दौरान भीम ने निज़ाम के न्यायालयी आदेशों, क़ानूनों और उसकी प्रभुसत्ता को सीधे चुनौती दी थी. सन 1928 से 1940 के बीच उन्होंने हैदराबाद की निज़ाम सरकार के ख़िलाफ़ अपना ‘छापामार अभियान’ जारी रखा. इस दौरान भीम बहादुरी से लड़ता रहा है और जंगल की हर लड़ाई जीतता गया. भीम की बहादुरी से निज़ाम सेना घबराने लगी थी. इस दौरान भीम ने ‘राजवंश’ के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ते हुए अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा जंगलों में व्यतीत किया. आख़िरकार निज़ाम और अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आख़िरी क्षण तक जंग लड़ने वाला ये योद्धा 27 अक्टूबर 1940 ये दुनिया छोड़ चला.
देश की आज़ादी के लिए अपने प्राणों की क़ुर्बानी देने वाले इन दो क्रांतिकारियों को हमारा शत शत नमन है.
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