पिछले कुछ सालों से बॉलीवुड में बायोपिक का दौर है, जिससे दर्शकों को देश के लिये कुछ कर गुज़रने वाले लोगों के बारे में काफ़ी कुछ जानने का मौका भी मिलता है. ‘मैरी कॉम’, ‘एम.एस धोनी’, ‘दंगल’, ‘नीरजा’ और ‘सूरमा’ जैसी सुपरहिट बायोपिक्स ने हमें एंटरटेन करने के साथ-साथ, समाज को एक नया आईना भी दिखाया. ये तमाम बायोपिक देखने के बाद देश की कई लड़कियों को हिम्मत मिली, तो वहीं ‘एम.एस धोनी’ में हमें खिलाड़ी धोनी के संघर्षों को करीब से देखने के मौका भी मिला. 

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इन सबके अलावा और भी कई बायोपिक हैं, जिन्होंने दर्शकों की वाहवाही के साथ-साथ काफ़ी अच्छा कलेक्शन भी किया. जैसे, भारतीय खिलाड़ी मोहम्मद अज़हरुद्दीन की ज़िंदगी पर बनी ‘अज़हर’, संजय दत्त का दुख़-दर्द बयां करती ‘संजू’ और हाल ही में रिलीज़ हुई ‘मणिकर्णिका: द क्वीन ऑफ़ झांसी’, ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ और बाल ठाकरे के जीवन पर बनी ‘ठाकरे’. 

अब बात मुद्दे की करते हैं. सबसे पहले ये बताइये, देश की आवाम थिएटर तक बायोपिक देखने के लिये क्यों जाती है?  

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ताकि, बायोपिक में दिखाने जाने वाले शख़्स की कहानी बिना किसी भेदभाव के जान सके, पर बॉलीवुड की इन बायोपिक को देख कर ऐसा लगता है, जैसे ये सिर्फ़ और सिर्फ़ सेलेब्स की छवि सुधारने के लिये बनाई जा रही हैं. कहने का मतलब ये है कि अज़हरुद्दीन, संजय दत्त और बाल ठाकरे की फ़िल्म देखने के बाद ऐसा लगा, जैसे इन लोगों ने लाइफ़ में कोई ग़लती ही न की हो. इन फ़िल्मों को दस बार भी देखोगे, तब भी इनमें ज़रा सी ग़लती नहीं निकाल पाओगे. मानों इनसे जुड़ी सारी कंट्रोवर्सी सिर्फ़ अफ़वाह मात्र थी, लेकिन हकीक़त तो ऐसा संभव नहीं है.  

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सबसे पहले बात संजू की, जिसे देखने के बाद आपको सिर्फ़ यही लगेगा कि संजय दत्त जैसे मासूम शख़्स को हथियार रखने के इल्ज़ाम में फंसाया गया था. चलो ये मान भी लिया कि इसमें संजय दत्त की कोई ग़लती नहीं थी पर संजय दत्त का माफ़ियों के साथ कुछ रिश्ता तो रहा होगा. इसीलिये शायद उन्हें जेल की सज़ा भी मिली और फिर ऐसा कैसे संभव है कि किसी के घर में अवैध हथियार रखे हुए हैं और उन्हें इसकी ख़बर तक नहीं हुई.  

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वहीं दूसरी तरफ़ अगर आपने अज़हर फ़िल्म देखी हो तो उसके अंत में अज़हरुद्दीन बने इमरान बुकी से कहते हैं कि मैंने तेरे पैसे इसलिये लिए, ताकि तू किसी दूसरे ख़िलाड़ी के पास न चला जाए. अंमा यार तुम सबकी छोड़ो, अगर ऐसा कुछ था, तो BCCI के पास क्यों नहीं गये? हीरो बनकर ख़ुद की ज़िंदगी में मुसीबतें क्यों बुलाई? इसके बाद अब बाल ठाकरे को ही ले लो. पूरी दुनिया को पता है कि ठाकरे साहब कितने कंट्रोवर्शियल शख़्स थे पर फ़िल्म में उन्हें भगवान की तरह पेश किया गया. चलो उसमें भी कोई बुराई नहीं, लेकिन उनकी ज़िंदगी की सच्चाई तो दिखा देते.   

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इसके साथ ही मणिकर्णिका देखने के बाद ऐसा लगा, जैसे हम झांसी की रानी नहीं, बल्कि कंगना की कहानी देख रहे हैं. बॉलीवुड से हटकर अगर इंटरनेशल लेवल पर बनी बायोपिक ‘A Beautiful Mind’, ‘Gandhi’ और ‘Mandela’ की बात करें, तो इन फ़िल्मों के साथ ऐसा बिल्कुल नहीं है. इनमें लोगों को बिल्कुल सही दृष्टि से दिखाया गया है, बाकि जैसा Personality की जर्नी रही, उसे पूरी तरह से पेश करने की कोशिश की गई.  

बायोपिक बनाने का मतलब किसी कहानी के साथ न्याय करना, लोगों तक अधूरे सच को पूरा पहुंचाना वो भी बिना किसी भेदभाव के. बायोपिक मतलब अच्छी या बुरी ख़बर नहीं होता, इसका मतलब सिर्फ़ और सिर्फ़ हकीक़त पेश करना होता है.