टीवी पर तमाम सीरियल्स आते हैं. सास-बहु की साज़िशों से लेकर हल्की-फुल्की कॉमेडी तक. रोज़ाना आने वाले इन धारावाहिकों को ‘डेली सोप’ (Daily Soap) बुलाया जाता है. मगर सवाल ये है कि सोप क्यों? आख़िर साबुन से इन सीरियल्स का क्या लेना-देना है? क्योंकि, इन टीवी सीरियल्स में नहाने-धोने वाले सीन तो कोई ख़ास दिखाते भी नहीं. हां, ये अलग बात है कि ज़्यादातर सीरियल्स बुद्धि से हाथ धोकर ज़रूर बनाए जाते हैं. 

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फिर क्या वजह है कि टीवी सीलियल्स को डेली सोप (Daily Soap) बुलाया जाता है?

इस सवाल का जवाब 20वीं शताब्दी में अमेरिका के इतिहास में छिपा है. ये कहानी 1920 के दशक की है, जब संयुक्त राज्य अमेरिका में रेडियो स्टेशन विज्ञापनों के माध्यम से रेटिंग में वृद्धि के लिए बेताब थे. उन दिनों आसानी से विज्ञापन नहीं मिलते थे. बहुत ज़्यादा बड़ी कंपनियां भी नही थीं, जो भर-भर के विज्ञापन दें. 

हालांकि, रेडियो एग्ज़क्यूटिव्स घरेलू सामान बेचने वाले ब्रांड्स को समझाने में सफ़ल रहे कि वो शो को स्पॉन्सर करें. मगर उन ब्रांड्स का ऐसा करना तब ही सफ़ल रहता, जब लोग उनके प्रोडेक्ट्स में दिलचस्पी दिखाएं. ऐसे में इनकी टार्गेट ऑडियंस बनी घरेलू काम करने वाली महिलाएं.

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उस वक़्त ज़्यादातर कंपनियों को ये गणित समझ न आई, मगर साबुन डिटर्जेंट बनाने वाली प्रॉक्टर एंड गैंबल (P&G) इस मामले में तेज़ निकली. उसे समझ आ गया कि अगर अपने प्रतिद्वंद्वी लीवर ब्रदर्स को मार्केट में पछाड़ना है, तो ये एक सुनहरा अवसर हो सकता है. ऐसे में P&G ने 1933 में Ma Perkins नामक एक रेडियो शो को प्रायोजित करके अपने उत्पाद Oxydol के लिए विज्ञापन दिया. ये एक ड्रामा शो था.

P&G ने मौक़े पर चौंका जड़ दिया था. क्योंकि, शो के दौरान Oxydol का बीच-बीच में विज्ञापन आता था. जब इस कॉम्बो को अमेरिका के कुछ शहरों में टेस्ट किया गया, तो इसे ज़बरदस्त सफ़लता मिली. ऐसा देखा गया कि जो लोग रोज़ाना इस शो को देखते थे, वो इस प्रोडेक्ट को खरीदने भी स्टोर्स पर जाने लगे. कंपनी की बिक्री इतनी बढ़ी कि आगे उसने इस शो को बनाना ही शुरू कर दिया. साथ ही, वो अपने सोप के एड्स भी इसमें बीच-बीच में चलाती थी. इस वजह से इन कार्यक्रमों को सोप ओपेरा (Soap opera) या डेली सोप (Daily Soap) कहा जाने लगा. 

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आगे उन्होंने दूसरे अवॉर्ड विनिंग शोज़ बनाए, जिसने एक वफ़ादार ऑडियन्स बनाने में मदद की. ये रणनीति इतनी कारगर साबित हुई कि बाद में दुनियाभर के ब्रांड्स ने इन्हें अपनाया. बाद में रेडियो की जगह टीवी ने ले ली. मगर ये तरीका नहीं बदला. साथ ही, इन्हें डेली सोप ही कहा जाता रहा.

आज भले ही कार्यक्रमों या धारावाहिकों के विषय बदल गए हों, इनके स्पॉन्सर अन्य उत्पाद भी होने लगे हों, मगर फिर भी इन्हें डेलीसोप ही कहा जाता है. इस तरह पश्चिमी दुनिया से निकली ये टर्म पूरी दुनिया में फैल गई और अभी भी इसका इस्तेमाल जारी है.