2013, जुलाई 01.

नई कंपनी में मेरा पहला दिन था. रेडियो कंपनी थी, तो रिसेप्शन से लेकर हॉल में गाने चल रहे रहे थे. बाहर बारिश हो रही थी और मैं लगभग भीग कर ही पहुंची थी. HR ने कहा, थोड़ी Formalities पूरी करनी हैं इसलिए बाहर बैठो. AC की ठंड से बचने के लिए कॉफ़ी पीने लगी… बैकग्राउंड में गाना चल रहा था, ‘संवार लूं, हाय संवार लूं.’

उस दिन से लेकर आज तक, मैं जब भी ‘लुटेरा’ के गाने सुनती हूं, मुझे अपनी उस जॉब का पहला दिन याद आ जाता है. ये गाना सुनते हुए चाहे बाहर गर्मी हो रही हो, मुझे लगता है कि बारिश हो रही है. उसकी हल्की-हल्की बूदें आसमां से शीशे पर टपक रही हैं और कॉफ़ी की वो महक…

2013 में आयी विक्रमादित्य मोटवाने की दूसरी फ़िल्म थी ‘लुटेरा’. उड़ान से वो सफ़लता देख चुके थे लेकिन इस फ़िल्म ने मेरे जैसों को विक्रमादित्य का फ़ैन बना दिया.

ये वो फ़िल्म थी, जिसने हिंदी सिनेमा को नए नाम दिए और कुछ चमत्कार किए. इस फ़िल्म से पहले किसी ने रणवीर सिंह को ऐसे संजीदा रोल करते हुए नहीं देखा था. 

जब भी मैं रणवीर सिंह को उछलकूद मचाते, ‘खिलजी’ बने देखती हूं, उसके पागलपन को पसंद करने लगती हूं, मेरा दिमाग़ 2013 में वापस लौट जाता है. उस रणवीर की तरफ़, जो संजीदा था. मैंने रणवीर से कभी ऐसी संजीदगी Expect नहीं की थी.

सोनाक्षी को इससे पहले ‘दबंग’ में देखा था और फिर ‘लुटेरा’ में. ‘मिनिमल मेकअप’ या ‘नो मेकअप’ रोल्स में कई एक्ट्रेस को देखा है पर सोनाक्षी ने ‘पाखी’ के किरदार को अपनी सादगी से ज़िंदा कर दिया था. उसके इमोशंस, मन में मुस्कुराना, रोना, वो सब किसी चलती तस्वीर जैसा था.

इस फ़िल्म ने मुझे प्यार करने के लिए एक नाम और दे दिया: अमित त्रिवेदी… पिछले 8 सालों में बॉलीवुड ऐसी बहुत कम फ़िल्में रिलीज़ कर पाया है, जिनमें म्यूज़िक किसी नदी की तरह बहा हो. 


‘संवार लूं’ में अगर ख़ुद से प्यार करने का एक्सप्रेशन था, तो ‘शिकायतें’ में दुनिया जहां से आज़ाद होने की ख़्वाहिश. ‘मोंटा रे’ बंगाल की ख़ूबसूरती को अपने साथ लाया था और ‘मनमर्ज़ियां’ आशिक़ी को उसके Purest फ़ॉर्म में ले गया था. मेरी बात से वो सभी इत्तेफाक़ रखेंगे जिन्होंने इन गानों के एक-एक शब्द को, इनके म्यूज़िक की ख़ुश्बू महसूस की है.

जिस दिन थोड़ा सा मूड आपके साथ खेलने लगे, कमरे की लाइट हल्की कर, हाथ में एक कप चाय/कॉफ़ी लेना और इसके गाने चला देना. सुकून मिलेगा.

लुटेरा में हर एक्टर सही था, चाहे वो रणवीर सिंह के दोस्त बने विक्रांत मसे हों या फिर सोनाक्षी के पिता. इसका हर फ़्रेम सही था. ऐसा कम ही फ़िल्मों में होता है कि आपको उसके हर फ़्रेम से प्यार हो जाए. फ़िल्म के वो सीन्स, जहां सोनाक्षी और रणवीर का प्यार परवान चढ़ रहा होता है, किसी आर्ट गैलरी से निकले सीन लगते हैं.

ये फ़िल्म, ओ. हेनरी की शॉर्ट स्टोरी ‘लास्ट लीफ़’ से प्रभावित थी. फ़िल्म के आखरी मिनट में रणवीर बीमार पड़ी सोनाक्षी के लिए पेड़ पर एक नकली सुनेहरा पत्ता बनाता है. 

ये सीन इस फ़िल्म की जान था और इसी पत्ते में सोनाक्षी की जान थी. पुलिस की गोली से लड़खड़ाता एक मुजरिम है रणवीर लेकिन वो एक प्रेमी भी है. 

उस प्रेमी को ख़ुद पर लगी गोली की परवाह नहीं है, उसे खो चुके प्यार की परवाह है. वो उसे एक बार फिर जीतना चाहता है. इस बार उसकी जीत, उसकी जान की कीमत होती है. फ़िल्म का कोई हिस्सा अगर किसी को अखरा भी होगा, तो इस आखरी सीन ने उस क्रिटिक की शिकायतें दूर कर दी होंगी.

आज रणवीर काफ़ी सही काम कर रहे हैं, सोनाक्षी की एक अलग इमेज बन चुकी है. विक्रमादित्य मोटवाने ‘Trapped’ ‘Sacred Games’ में फिर से कमाल कर चुके हैं. अमित त्रिवेदी ने ‘Queen’, ‘Andhadhun’, ‘Manmarziyan’ के नाम पर अच्छे म्यूज़िक की सौगात फिर से दे दी लेकिन इस टीम ने जो कमाल लुटेरा  में किया, मेरे लिए वहां तक कोई नहीं पहुंच पाया.

बाहर बारिश हो रही है. इस वक़्त मैं एक दूसरे ऑफ़िस में हूं. हेडफ़ोन्स लगाए हैं… ‘संवार लूं’ सुनना अब भी अच्छा लगता है.   

All images sourced from T-series