Indian Revolutionary Rajendra Lahiri: भारत की आज़ादी के लिए सैकड़ों क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया था. लेकिन आज की पीढ़ी इन क्रांतिकारियों को भूल सी गयी है. स्वाधीनता आंदोलन के कुछ नामचीन क्रांतिकारियों भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, चंद्र शेखर आज़ाद, राम प्रसाद बिस्मिल, उधम सिंह, अशफ़ाक़उल्ला ख़ान और खुदीराम बोस को छोड़ दें तो हमें बाकियों के नाम तक याद नहीं हैं. ये क्रांतिकारी भी हमें इसलिए याद रह गये क्योंकि इतिहास की किताबों में इनके बारे में काफ़ी कुछ लिखा गया है, इसका मतलब ये नहीं है कि जिनके बारे में नहीं लिखा गया उनका योगदान कम था. आज भी ‘स्वाधीनता आंदोलन’ के कई ऐसे गुमनाम हीरोज़ हैं, जिनका ज़िक्र करना बेहद ज़रूरी है.

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आज हम आपको एक ऐसे क्रांतिकारी के बारे में बताने जा रहे हैं जिसके शातिर दिमाग ने अंग्रेज़ों की नींदें उड़ा दी थीं. हम बात कर रहे हैं ‘स्वाधीनता आंदोलन’ के गुमनाम हीरो राजेन्द्र लाहिड़ी (Rajendra Lahiri) की. राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी भारत के उन अमर शहीद क्रांतिकारियों में से एक हैं जिन्होंने जीते-जी देश की सेवा की और उसी देश के लिए एक दिन मात्र 26 साल की उम्र में कुर्बान भी हो गये. 

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दरअसल, प्रसिद्ध ‘काकोरी कांड’ मामले में गिरफ़्तार होने वाले 16 ‘स्वतंत्रता सेनानियों’ में एक नाम राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी का भी था. इस कांड के लिए फांसी दिए जाने वाले क्रांतिकारियों में राम प्रसाद बिस्मिल मुख्य थे जिन्होंने ‘काकोरी कांड’ की योजना बनाई थी, लेकिन बिस्मिल के साथ ऐसे बहुत से और भी देशभक्त थे, जिन्होंने अपनी जान की परवाह किये बना, खुद को देश के लिए समर्पित कर दिया था. इन्ही में से एक राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी भी थे.  

असल ज़िंदगी में कौन थे राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी

राजेन्द्र लाहिड़ी (Rajendra Lahiri) का जन्म बंगाल के पाबना ज़िले के भड़गा नामक गांव में 23 जून, 1901 को हुआ था. इनके पिता का नाम क्षिति मोहन शर्मा और मां का नाम बसंत कुमारी था. लाहिड़ी के जन्म के समय उनके पिता बंगाल में चल रही ‘अनुशीलन दल’ की गुप्त गतिविधियों में योगदान देने के आरोप में कारावास में कैद थे. साल 1909 में राजेन्द्र को पढ़ाई के लिए उनके मामा के यहां वाराणसी भेज दिया गया. यहीं पर उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई, लेकिन देशभक्ति और निडरता तो राजेन्द्र को पिता से विरासत में मिली थी. राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी जब ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’ से इतिहास की पढ़ाई कर रहे रहे थे तब उनकी मुलाकात बंगाल के क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल से हुई.

कॉलेज में शचीन्द्रनाथ सान्याल को राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी के भीतर देशभक्त क्रांतिकारी की झलक देखने को मिली. इसके बाद शचीन्द्रनाथ ने राजेन्द्रनाथ को अपने साथ रख लिया और उन्हें बनारस से प्रकशित होने वाली पत्रिका ‘बंग वाणी’ के सम्पादन का कार्य भार सौंप दिया. इस दौरान राजेन्द्र की मुलाकात देश के अन्य क्रांतिकारियों से भी होने लगी. इसके बाद वो सभी मिलकर ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ जंग छेड़ने की योजना बनाने लगे. राजेन्द्र भी अब क्रांतिकारी संगठन ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन’ से जुड़ चुके थे और इसके सक्रिय सदस्य बन गए थे.  

राजेन्द्र लाहिड़ी (Rajendra Lahiri) का स्वाभाव भले ही क्रांतिकारी था पर उनकी रूचि साहित्य में भी थी. वो अच्छे से जानते थे कि कहीं न कहीं शिक्षा ही देश का उद्धार कर सकती है. इसलिए उन्होंने अपने भाइयों के साथ मिलकर अपनी मां बसंता कुमारी के नाम से एक पारिवारिक पुस्तकालय की शुरुआत भी की थी. राजेन्द्र लाहिड़ी नियमित रूप से लेख लिखते थे. इसके साथ ही उनका प्रयास यही रहता था कि ‘क्रांतिकारी दल’ का प्रत्येक सदस्य अपने विचारों को लेख के रूप में व्यक्त करे.

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‘काकोरी कांड’ की सटीक योजना बनाई

जुलाई 1925 में क्रांतिकारियों द्वारा चलाए जा रहे आज़ादी के आन्दोलन को गति देने के लिए धन और साधनों की ज़रूरत को देखते हुए शाहजहांपुर में रामप्रसाद बिस्मिल ने ब्रिटिश सरकार का खजाना लूटने की योजना बनाई. इस योजना की पटकथा लिखने का कार्य राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को सौंपा गया. दरअसल, क्रांतिकारी मामलों में राजेन्द्रनाथ का बेहद तेज़ चलता था, इसलिए योजना के तहत उन्हें ट्रेन की चेन खींचने का काम दिया गया. इस दौरान सारा खेल टाइमिंग का था, क्योंकि उस दौर में संचार का कोई दूसरा माध्यम नहीं था, इसलिए इस काम के लिए राजेन्द्रनाथ जैसे समझदार और शातिर दिमाग़ व्यक्ति की ज़रूरत थी.

आख़िरकार योजना के तहत राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने 9 अगस्त, 1925 को लखनऊ के पास ‘काकोरी रेलवे स्टेशन’ से छूटी ‘आठ डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेन्जर ट्रेन’ की चेन खींच कर उसे रोक दी. इसके बाद क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में अशफ़ाक़उल्ला ख़ां, चन्द्रशेखर आज़ाद व छह अन्य सहयोगियों की मदद से ट्रेन पर धावा बोलते हुए लाखों का सरकारी खजाना लूट लिया गया.

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काकोरी कांड को अंजाम देने के बाद राम प्रसाद बिस्मिल ने राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को बम बनाने के प्रशिक्षण के लिए कलकत्ता (कोलकाता) भेज दिया. कलकत्ता के पास ही दक्षिणेश्वर में वे बम बनाने का अभ्यास कर रहे थे, कि एक दिन किसी साथी की जरा-सी असावधानी से एक बम अचानक ब्लास्ट हो गया. इसकी तेज़ आवाज़ को पुलिस ने सुन लिया और तुरंत ही मौके पर पहुंच कर वहा मौजूद 9 लोगों के साथ राजेन्द्रनाथ को भी गिरफ़्तार कर लिया.

राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को बेम बनाने के आरोप में गिरफ़्तार कर 10 साल की जेल की सजा सुनाई गयी, लेकिन बाद में एक अपील के कारण सजा को 5 वर्ष कर दिया गया. वहीं दूसरी तरफ ब्रिटिश पुलिस ‘काकोरी कांड’ को अंजाम देने वाले क्रांतिकारियों की धर-पकड़ में लगी हुई थी. कुछ ही समय में ब्रिटिश पुलिस ने एक-एक करके सभी क्रांतिकारियों को पकड़ लिया और इस दौरान पूछताझ में राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी का नाम भी सामने आया. इसके बाद उन्हें बंगाल से बनारस लाया गया और उन पर ‘काकोरी कांड’ का मुकदमा चलाया गया.

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इस बीच अंग्रेज़ी हुकूमत ने ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन’ के कुल 40 क्रांतिकारियों पर साम्राज्य के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने, सरकारी खजाना लूटने व मुसाफिरों की हत्या करने का मुकदमा चलाया. इसमें राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ उल्ला ख़ां और ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सज़ा सुनायी गयी. फांसी की सजा मिलने के बाद भी जेल में राजेन्द्रनाथ की दिनचर्या में कोई भी बदलाव नहीं आया.

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जेल में एक दिन जेलर ने राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी से सवाल किया कि ‘पूजा-पाठ तो ठीक हैं, लेकिन ये कसरत क्यों करते हो अब तो फांसी होने वाली है’. इस पर राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने जेलर को जवाब देते हुए कहा, ‘अपने स्वास्थ के लिए कसरत करना मेरा रोज़ का नियम हैं और मैं मौत के डर से अपना नियम क्यों छोड़ दूं? मैं कसरत इसलिए भी करता हूं क्योंकि मुझे दूसरे जन्म में विश्वास है और मुझे दूसरे जन्म में बलिष्ठ शरीर मिले इसलिए करता हूं, ताकि ब्रिटिश साम्राज्य को मिट्टी में मिला सकूं’.  

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आख़िरकार राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को नियत समय के 2 दिन पहले ही 17 दिसंबर, 1927 को फांसी दे दी गयी थी. राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी की याद में उत्तर प्रदेश के गोंडा ज़िले में ‘लाहिड़ी दिवस’ के रूप में भी मनाया जाता है.