आप सभी ने कारगिल युद्ध (Kargil War) की बहुत सी कहानियां पढ़ी और सुनी होंगी, लेकिन आज हम आपके लिए एक ऐसी सच्ची कहानी लेकर आये हैं, जो प्यार, इमोशन, समर्पण और जज़्बे पर आधारित है. यकीनन देश के लिए मर मिटने वाले एक जवान की ये कहानी आपकी आंखें नम कर देगी. ये भारतीय सेना के उस जवान की ‘प्रेम और जज़्बे’ की कहानी है, जिसने अपने परिवार से पहले अपने देश को रखा.

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‘कारगिल युद्ध’ में मिली जीत को क़रीब 22 साल हो चुके हैं. इस जंग में भारतीय सेना ने पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी थी, लेकिन इसके लिए भारत को भी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी थी. इस दौरान हमारे 527 सैनिक शहीद हो गए थे, वहीं 1300 से अधिक सैनिक घायल हुए थे. देश के लिए शहीद होने वालों में से एक ‘राजपुताना राइफ़ल्स’ के वीर सपूत मेजर पद्मपनी आचार्य (Major Padmapani Acharya) भी थे. 

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मेजर पद्मपनी आचार्य, 28 जून, 1999 को पाकिस्तानी सेना से लड़ते हुए कारगिल के ‘तोलोलिंग’ में शहीद हो गए थे. इस दौरान वो केवल 30 साल के थे. मेजर आचार्य को उनकी इस शहादत के लिए मरणोपरांत भारतीय सेना के दूसरे सबसे बड़े वीरता पुरस्कार ‘महावीर चक्र’ से सम्मानित किया गया था. कारगिल युद्ध के दौरान वो अपनी यूनिट की एक टीम को लीड कर रहे थे.

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कौन थे मेजर आचार्य?  

मेजर पद्मपनी आचार्य का जन्म 21 जून 1969 को हैदराबाद में हुआ था. वो मूल रूप से ओडिशा के रहने वाले थे, लेकिन उनका परिवार हैदराबाद में रहता था. हैदराबाद की ‘उस्मानिया यूनिवर्सिटी’ से स्नातक करने के बाद पद्मापणि 1994 में भारतीय सेना में शामिल हो गये. ‘ऑफ़िसर्स ट्रेनिंग अकेडमी’, मद्रास से ट्रेनिंग लेने के बाद पद्मपनी को ‘राजपूताना रायफल’ में कमीशन मिला. सन 1996 में मेजर आचार्य ने चारुलता से शादी की थी. 

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मेजर आचार्य और चारुलता की दिलचस्प लव स्टोरी  

मेजर आचार्य की पत्नी चारुलता आचार्य ने Humans of Bombay से अपने पति के साथ पहली मुलाक़ात को याद करते हुए बताया कि ‘हमारी पहली मुलाक़ात 1995 में हुई थी, मैं अपनी आंटी के साथ ट्रेन से कहीं जा रही थी. इस दौरान जब मेरी नज़रें मेजर आचार्य पर गयीं तो वो उस वक़्त ट्रेन में लोगों की मदद करने में जुटे हुये थे. जब वो अपनी सीट पर बैठे तो उन्होंने मेरी तरफ़ देखा. कुछ देर बाद वो मेरे करीब आकर बैठ गये और अपनी किताब पढ़ने लगे’.

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इसी बीच मेरी आंटी की आंखें लग गईं और वो सो गयीं. इसके बाद मेजर और में सारी रात एक दूसरे की आंखों में आंखें डालकर बातें करते रहे. सुबह कब हो गई हमें पता ही नहीं चला. इस दौरान जब मेजर आचार्य की मंज़िल आई तो वो उतर गए, लेकिन सीट पर अपनी किताब छोड़ गए. इस किताब के अंदर एक पन्ने पर उन्होंने अपना फोन नंबर लिखा हुआ था. मैंने घर पहुंचकर फटाफट उस नंबर को डायल किया, जो संयोग से उनकी मां ने उठाया.  
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मेरी आवाज़ सुन वो बेहद ख़ुश हो गईं. उन्होंने मुझे बताया कि मेजर आचार्य ने उन्हें मेरे बारे में सब कुछ बता दिया है. उनकी मां के मुंह से ये बात सुन मैं बहुत ख़ुश हुई. इसके कुछ दिन बाद हमारे परिवार के बीच मुलाकात हुई और हमारी शादी तय हो गई. मुझे हिंदी नहीं आती थी, इसलिए मैंने हिंदी सीखी ताकि मैं मेजर से अच्छे से बात कर सकूं. सन 1956 में हमारी शादी हो गयी. मेजर आचार्य काफ़ी रोमांटिक थे. वो अक्सर बिना बताये छुट्टी पर आकर मुझे सरप्राइज देते थे. 
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कारगिल से आया बुलावा 

‘हमारी शादी के 3 साल बाद उन्हें ‘कारगिल’ से बुलावा आया, तब मैं प्रेगनेंट थी. इस दौरान उन्होंने जाने का कारण भी नहीं बताया. उन्होंने मुझे गले लगाया और कहा मैं जल्द ही वापस आउंगा. ड्यूटी पर पहुंचकर वो मुझे कारगिल से खत लिखा करते थे और कहते थे ‘मेरे होने वाले बच्चे का ध्यान रखना’. वो केवल हमसे ही नहीं, बल्कि हमारे देश से भी बेहद प्यार करते थे. देश के लिए उनका जज़्बा देखने लायक था’.   

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मेजर पिता बनने वाले थे कि शहीद हो गए  

‘कारगिल युद्ध’ के दौरान मेरे ससुराल वालों ने ख़बर दी कि मेजर आचार्य शहीद हो गए हैं, लेकिन मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था. मैं पूरी तरह से टूट चुकी थी. मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मुझे गर्व करना चाहिए या दुखी होना चाहिए, क्योंकि मैं कई हफ्तों तक रोती रही. मैं विधवा हो चुकी थी. मेजर आचार्य अब कभी वापस लौटकर नहीं आएंगे.

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मेजर आचार्य जब शहीद हुये तो उस वक़्त मैं प्रेग्नेंट थी. शहादत के 3 महीने बाद मैंने एक बच्ची को जन्म दिया, जो हूबहू अपने पिता की तरह दिखती थी. मैंने मेजर आचार्य को समर्पित हमारी बेटी का नाम ‘अपराजिता’ रखा. वो हम दोनों के प्यार की निशानी है, इसलिए मैंने उसके सहारे अपनी बाकी की ज़िंदगी जीने का फैसला किया. इस दौरान मेजर के परिवारवालों ने मुझे दोबारा शादी करने की सलाह भी दी, लेकिन मैंने मना कर दिया.
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‘मैंने दूसरी शादी करने के बजाय मेजर आचार्य की विरासत का सम्मान करना बेहतर समझा. मेजर आचार्य को इडली, डोसा और सांभर बेहद पसंद था. आज भी हम हर ख़ास मौके पर केवल इडली, डोसा और सांभर ही बनाते हैं. मैंने अपनी बच्ची को अच्छी परवरिश दी है, मैं जब भी अपनी बेटी के साथ होती हूं तो मुझे मेजर का हंसता हुआ चेहरा उसमें दिखता है’. 

मेजर आचार्य की पत्नी चारुलता आचार्य आज ख़ुद का एक बिज़नेस चला रही हैं. इस दौरान उन्होंने एक ऐसी टीम भी बनाई जो ‘वॉर’ में शहीद’ हुए सैनिकों के परिवार को इमोशनली और फाइनेंशियली सपोर्ट करती है. 

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