Manmath Nath Gupta: भारत की आज़ादी की कहानी किसी एक व्यक्ति तक सीमित नहीं है. इसमें कई क्रांतिकारियों का लहू शामिल है. अंग्रेज़ों को भारत से खदेड़ने के लिए हर उम्र के व्यक्तियों ने अपनी भागीदारी दी. गोली खाई, यातनाएं झेलीं, लेकिन हार नहीं मानी. अंग्रेज़ों के खिलाफ़ लगातार संघर्ष के बाद क्रांतिकारियों ने भारत को आज़ाद करवाया. इसलिये, हमारी ज़िम्मेदारी बनती है कि भारत की आज़ादी के वीरों को पीढ़ियों तक याद रखा जाए और ये तभी संभव है जब हम अपने वीर सेनानियों के बारे में जानें. 

इस कड़ी में हम भारत के उस वीर क्रांतिकारी के बारे में बताने जा रहे हैं, जिनके बारे में अधिकांश भारतीयों को जानकारी नहीं होगी. आइये, जानते हैं अंग्रेज़ों के नींव हिला देने वाली काकोरी कांड के नायक मन्मथनाथ गुप्त के बारे में.    

आइये, अब विस्तार से पढ़ते हैं Manmath Nath Gupta के बारे में. 

काकोरी कांड   

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अंग्रेज़ों की विरुद्ध लड़ाई सिर्फ़ एक घटना नहीं थी, बल्कि ये एक लगातार चलने वाली लड़ाई थी, जिसमें कई छोटी-बड़ी घटनाएं शामिल हैं. इसमें 9 अगस्त 1925 का काकोरी कांड का नाम भी शामिल है, जिसका मक़सद था अंग्रेज़ों से लड़ने के लिए हथियार खरीदने के लिए काकोरी में ट्रेन से अंग्रेज़ों का ख़जाना लूटना. हालांकि, ये योजना सफल नहीं हुई और इसमें शामिल कई क्रांतिकारियों को पकड़ लिया गया और कई को फांसी पर लटका दिया गया. 


वहीं, जब भी काकोरी कांड की बात सामने आती है, तो सबसे पहले राम प्रसाद बिस्मिल का नाम आता है, जिन्होंने इस कांड की पूरी योजना बनाई थी. वहीं, इस घटना से जुड़े राजेंद्रनाथ लाहिड़ी व अशफाक उल्ला खां भी याद आते हैं, लेकिन इनके अलावा और भी क्रांतिकारी काकोरी कांड में शामिल थे, जिन्होंने देश सेवा में कोई कमी नहीं छोड़ी.  

काकोरी कांड में 16 क्रांतिकारियों को गिरफ़्तार किया गया था, जिसमें एक मन्मथनाथ गुप्त (Manmath Nath Gupta) भी थे. जिस वक्त उन्होंने काकोरी कांड के लिए राम प्रसाद बिस्मिल का साथ देने का फैसला लिया, उनकी उम्र मात्र 17 वर्ष की थी.    

नेपाल में दो वर्ष की पढ़ाई    

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जानकारी के अनुसार, मन्मथनाथ गुप्त का जन्म 7 फरवरी 1908 को उत्तर प्रदेश के बनारस में हुआ था. मन्मथनाथ के पिता का नाम वीरेश्वर गुप्त था, जो कि नेपाल के विराटनगर के एक स्कूल के हेडमास्टर थे. मन्मथनाथ ने दो वर्ष तक नेपाल में ही पढ़ाई की, इसके बाद उन्होंने आगे की पढ़ाई काशी विद्यापीठ से की.   

13 साल उम्र में आज़ादी की लड़ाई में लिया हिस्सा  

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जिस दौरान मन्मथनाथ (Manmath Nath Gupta) काशी विद्यापीठ में अपनी पढ़ाई कर रहे, तब देश में अंग्रेज़ों के खिलाफ़ जंग छिड़ चुकी थी. वहीं, क्रांतिकारियों के भाषणों और उनके लेखों से बाल मन्मथनाथ भी प्रभावित हुए और मात्र 13 साल वर्ष का आयु में वो भारत की आज़ादी की लड़ाई में शामिल हो गए.  


साहस कूट-कूट कर भरा था  

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कहते हैं कि जब 1921 में प्रिंस एडवर्ड में प्रवेश कर रहे थे, तो क्रांतिकारी चाहते थे कि वहां के महाराजा उनका बहिष्कार करें. इस काम के लिए लोगों को जागरुक करने के लिए क्रांतिकारियों के साथ बाल मन्मथ (Manmath Nath Gupta) भी शामिल हो गये थे. वो भी गाडोलिया इलाक़े में पर्चे और पोस्टर बांट रहे थे. तभी वहां पुलिस आ गई, लेकिन मन्मथ पर इसका कोई फ़र्क नहीं पड़ा. 


वहीं, पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया था और जब उन्हें जज के सामने पेश किया गया, तो उन्होंने साहस के साथ कहा था कि वो उनका सहयोग नहीं करेंगे. इसके चलते उन्हें तीन वर्ष की जेल हो गई थी.    

कांग्रेस के कार्यकर्ता के रूप में काम   

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नेशनल कांग्रेस के कार्यकर्ता के रूप में भी Manmath Nath Gupta अपनी भागीदारी दी और साथ ही असहयोग आंदोलन में भी बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया, लेकिन चौरा चौरी कांड के बाद गांधी जी को उनका ये आंदोलन वापस लेना पड़ा था. वहीं, मन्मथनाथ Hindustan Republican Association के सक्रीय सदस्य थे. कहते हैं कि वीर चंद्रशेखर आजाद ने ही मन्मथ को Hindustan Republican Association का हिस्सा बनाया था. उन्होंने काकोरी कांड में भी हिस्सा लिया था. ये ब्रिटिश काल के दौरान एक ऐतिहासिक लूट मानी जाती है, जिसमें क़रीब 4601 रुपये लूटे गए थे.    

जब मन्मथनाथ के हाथों से चल गई थी गोली  

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कहते हैं कि काकोरी कांड में पिस्तौल के अलावा जर्मनी के बने माउज़र भी इस्तेमाल में लाए गए थे. वहीं, जैसे की ट्रेन सरकारी ख़जाने के साथ काकोरी स्टेशन से आगे के लिए बढ़ी क्रांतिकारियों ने चेन खींच ट्रेन को रोक लिया और ख़जाने वाले बक्से को नीचे फेंक दिया. 


 बक्से को खोलने की कोशिश की गई, लेकिन कोशिश विफल होने के बाद अशफाक उल्ला खां ने अपना माउज़र मन्मथ को थमा दिया और हथौड़े से बक्शा तोड़ने लगे. तभी मन्मथ के हाथ के माउज़र का ट्रिगर दब गया और वो गोली एक आम यात्री को जा लगी. 

 इसके बाद अफरा-तफरी का माहौल और क्रांतिकारी जितना ख़जान ले जा सकते थे लेकर वहां से भाग गए. इसके बाद अगले दिन ये खबर आग तक तरह हर जगह फैल गई. 

कांतिक्रारियों को दी गई फांसी  

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इस घटना ने अंग्रेज़ों की नींव हिला दी थी. इसलिए. उन्होंने इसे गंभीरता से लिया और मामले की जांच के लिए सीआईडी इंस्पेक्टर तसद्दुक हुसैन के अंडर तेज़ तरार पुलिस को स्कॉटलैण्ड से बुलाया गया. जांच के बाद एक एक करके काकोरी कांड में शामिल क्रांतिकारियों को पकड़ लिगा गया और पांच क्रांतिकारियों को उम्र कैद की सज़ा और राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सज़ा सुनाई गई. मन्मथनाथ नाबालिग थे, इसलिए उन्हें फांसी नहीं दी गई, लेकिन उम्रकैद के लिए कारावास में डाल दिया गया. वहीं, 1939 में वो जेल से निकलकर बाहर आए.   

फिर से शुरू की क्रांति   

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जेल से छूटने के बाद मन्मथनाथ गुप्त ने अंग्रेज़ों के खिलाफ़ न्यूज़पेपर्स में लिखना शुरू किया. इसके लिए उन्हें फिर से कारावास में डाला गया. उन्हें जेल में 1939 से लेकर 1946 तक रखा गया. तब तक देश आज़ाद हो गया था. हालांकि, उन्होंने अपने लिखने का काम जारी रखा. कहते हैं कि उन्होंने क़रीब 120 किताबें लिखीं. वहीं, साथ ही कई प्रत्रिकाओं के संपादक भी रहे.    

रहेगा ताउम्र अफ़सोस…  

साल 1997 में उन्होंने दूरदर्शन पर के एक शो ‘सरफरोशी की तमन्ना’ में अपना अंतिम इंटरव्यू दिया, जिसमें उन्होंने ये बात कबूली कि, “मेरी एक ग़लती की वजह से मेरे प्रिय ‘बिस्मिल’ पकड़े गए. इसब बात का मुझे ताउम्र अफ़सोस रहेगा.”