देवभूमि उत्तराखंड अपनी सांस्कृतिक विरासत के लिए दुनियाभर में मशहूर है. हरिद्वार, ऋषिकेश, गंगोत्री, यमनोत्री, बदरीनाथ और केदारनाथ उत्तराखंड की वो जगहें हैं जो अपने धार्मिक महत्व के लिए देशभर में प्रसिद्ध हैं. गढ़वाल और कुमाऊं नाम के दो रीज़न में बंटा उत्तराखंड देश का एकमात्र राज्य है. इन दोनों ही रीज़न की भाषा, खान, पान और भेषभूसा भी अलग-अलग है. यही उत्तराखंड की ख़ास पहचान भी है. देश का ये पहाड़ी राज्य अपने खान-पान से लेकर अपनी संस्कृति और देव स्थान के लिए भी जाना जाता है. इसके अलावा उत्तराखंड हमेश से ही अपने आदमखोर बाघ (टाइगर) के लिए भी मशहूर रहा है.

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पिछले 100 सालों की बात करें तो उत्तराखंड में आदमखोर बाघ अब तक हज़ारों लोगों को अपना निवाला बना चुका है. साल 2020 और 2021 में कोरोना वायरस के कारण जारी लॉकडाउन के दौरान उत्तराखंड में कई आदमखोर बाघ एक्टिव हो गये थे. इस दौरान इन्होने 10 से अधिक लोगों की जान ले ली थी. उत्तराखंड में आदमखोर बाघों का इतिहास बेहद पुराना रहा है. आज से क़रीब 100 साल पहले भी उत्तराखंड अपने एक आदमखोर बाघ की वजह से दुनियाभर में काफ़ी मशहूर हुआ था.

आदमखोर बाघ

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आज हम बात उत्तराखंड के इसी आदमखोर बाघ की करने जा रहे हैं, जिसकी चर्चाएं उस दौर में केवल भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया के कई अन्य देशों में भी हुआ करती थी. ये बाघ इतना मशहूर था कि इसकी ख़बरें ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, दक्षिण अफ़्रीका, कीनिया और होंग कोंग के न्यूज़ पेपरों में भी छपा करती थीं. सुप्रसिद्ध शिकारी जिम कॉर्बेट (Jim Corbett) ने भी अपनी किताब The Man Eating Leopard of Rudraprayg में इस बाघ का ज़िक्र किया है. ये वही आदमखोर बाघ था जिसे मारकर जिम कॉर्बेट नेशनल हीरो बन गये थे.

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बात सन 1918 की है. ये ‘प्रथम विश्व युद्ध’ का दौर था. इस दौरान जब पूरी दुनिया युद्ध की मार झेल रही थी तब उत्तराखंड के वासी एक ‘आदमखोर बाघ’ की दहशत में जी रहे थे. इस दौरान इस आदमखोर बाघ ने उत्तराखंड के रुद्रप्रायग, चम्पावत और पनार क़स्बों के सबसे अधिक लोगों को अपना शिकार बनाया था. इस दौरान रुद्रप्रायग के बाघ का आतंक सबसे ज़्यादा था, जो 1918 से 1926 तक चला. इन 8 सालों में इस ‘आदमखोर बाघ’ ने 125 लोगों को अपना निवाला बना लिया था.

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क्यों बन गए थे ये बाघ आदमखोर? 

जिम कॉर्बेट (Jim Corbett) ने अपनी किताब में बाघों के आदमख़ोर बनाने के पीछे की वजह ‘प्रथम विश्व युद्ध’ के दौरान फ़ैले इन्फ्लुएंज़ा बुखार को बताया है. इसे ‘युद्ध ज्वर’ या ‘लाम बुखार’ के नाम से भी जाना जाता था. उस दौरान इस बुखार ने उत्तराखंड के गढ़वाल में हज़ारों लोगों की जान ले ली थी. ऐसे में मरने वाले लोगों के शवों को बिना जलाये ही जंगल में छोड़ दिया जाता था. इन्हीं शवों को खाकर ये बाघ आदमखोर बन गये थे.

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गढ़वाली भाषा में इसे कहा गया ‘फ्वां बाग’

ये ‘आदमखोर बाघ’ 500 किमी के दायरे में घूमता था. ये एक जगह शिकार करने के बाद दूसरा शिकार उस इलाके में न करके कहीं दूर जाकर दूसरी जगह शिकार किया करता था. इसीलिए उत्तराखंड में इसे ‘फ्वां बाग’ भी कहा जाता था. उत्तराखंड की गढ़वाली भाषा में ‘फ्वां बाग’ का मतलब होता है हवा की तरह तेज़ भागने वाला बाघ.

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‘सायनाइड’ से भी बच निकला

बताया जाता है कि ये ‘आदमखोर बाघ’ इतना शातिर था कि जब इसे मारने के लिए ‘सायनाइड’ का इस्तेमाल किया गया तो ये उससे भी बच निकला और ये ताकतवर था कि अपने शिकार को बिना ज़मीन पर रखे 500 मीटर तक ले जा सकता था. इसे पकड़ने के लिए जब 150 किलो का पिंजरा लगाया गया तो उसमें पंजा फंसने के बाद भी ये बाघ उस 150 किलो के पिंजरे को 500 मीटर तक खसीटते हुए ले गया और बच निकला.

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इसे मारकर जिम कॉर्बेट बने नेशनल हीरो

ब्रिटिश सरकार इस ‘आदमखोर बाघ’ से इतना परेशान हो गई कि इसे मारने के लिए अख़बारों में विज्ञापन निकलना पड़ा. बावजूद इसके केवल 3 शिकारियों ने इसे मारने में दिलचस्पी दिखाई. इस दौरान देश विदेश के शिकारियों ने इसे मारने की कोशिश की, लेकिन कोई भी सफ़ल नहीं हो पाया. आख़िरकार सुप्रसिद्ध शिकारी जिम कॉर्बेट ने 2 मई, 1926 को इस ‘आदमखोर बाघ’ को मार गिराया. इस दौरान उत्तराखंड के लोगों ने जिम कॉर्बेट को भगवान का दर्जा तक दे दिया था. लेकिन इस बाघ को मारने के लिए जिम कॉर्बेट को भी काफ़ी पापड़ बेलने पड़े थे.

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जिम कॉर्बेट (Jim Corbet) ने अपनी किताब में ये भी बताया है कि, रुद्रप्रायग का ये ‘आदमखोर बाघ’ ही एकमात्र ऐसा जानवर था जिसे दुनियाभर में सर्वाधिक प्रचार मिला था. भारत के दैनिक और साप्ताहिक अख़बारों के अलावा ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, दक्षिण अफ़्रीका, कीनिया और होंग कोंग की मीडिया में भी इस बाघ के खूब चर्चे होते थे.

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उत्तराखंड में इस ‘आदमखोर बाघ’ पर समय-समय पर गढ़वाली और कुमाऊनी भाषा में कई गाने भी बन चुके हैं.

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