ये ग़लत बात है, त्योहारों का उम्र से क्या वास्ता. बाल दिवस पर सिर्फ़ स्कूल जाने वाले बच्चों की छुट्टी क्यों होती है, जो बचपन में हमारे चाचा नेहरु हुआ करते थे, बड़े होने से उनका हमारा रिश्ता ख़त्म हो गया! हम आज भी उनका बर्थ डे मनाना चाहते हैं, कोई छुट्टी तो दे. 

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वैसे देखा जाए तो बचपन में भी हमारे साथ ग़लत ही हुआ था. जितने धूम-धाम से टीचर डे मनाया जाता था, चिल्ड्रन डे पर वैसे धमाका नहीं होता था. कहीं-कहीं तो दो मंच दे कर भी काम निपटा दिया जाता था. लेकिन उसी स्कूल में टीचर डे उतनी सादगी से नहीं मनाया जाता था. ऊपर से स्कूल की ओर से टीचर्स को कोई गिफ़्ट ज़रूर दिया जाता था, पैसा बच्चों से ही वसूला जाता था. 

चिल्ड्रन्स डे की एक ख़ासियत होती थी. इतनी तसल्ली रहती थी कि कैसी भी बदमाशी करलो उस दिन पिटाई नहीं होगी. शायद मास्टर जी अगले दिन खुन्नस निकाल लें, लेकिन 14 नवंबर के दिन आप सुरक्षित हैं, आपको कोई हाथ नहीं लगा सकता. 

स्कूल से ज़्यादा अच्छे से चिल्ड्रन्स डे कोचिंग में मनाया जाता था. उसकी वजह ये थी कि स्कूल वाले अपने ग्राहकों को लेकर सुनिश्चित थे, एडमिशन करा लिया है अब एक साल से पहले कहीं जा भी नहीं सकता. कोचिंग वालों का पास ये श्योरिटी नहीं थी, टीचर ने ऊंची आवाज़ में बात भी कर दी तो हो सकता है बच्चा अगला दिन कोचिंग न आए और घर पर बोल देगा कि मास्टर जी मेरे ऊपर कम ध्यान देते हैं. 

वापस आते हैं आज पर. सब कहते हैं कि सबके भीतर एक बच्चा ज़िंदा रहना चाहिए. तो मेरे भीतर का बच्चा आज छुट्टी मनाना चाहता है. उसे छुट्टी मिलनी चाहिए, इसी में इंसानियत है, इसी में विश्व कल्याण है.