जनता अपने ख़ून पसीने की कमाई को टैक्स के रूप में जमा करती है, ताकि ये देश तरक्की करे और JNU वाले इन पैसों को चार किताब एक्स्ट्रा पढ़ने के लिए ख़र्च कर देना चाहते हैं. जनता पैसों की इस बर्बादी को बर्दाशत नहीं करेगी, जिधर JNU वाले आंदोलन कर रहे हैं, उसी के सामने आम जनता को भी उन ‘अधेड़’ उम्र के छात्रों के ख़िलाफ़ धरने पर बैठ जाना चाहिए.
जो कमाते हैं, घर चलाते हैं उन्हें पता है कि कैसे इधर-उधर कागज़ लगा कर CA लगा कर टैक्स बचाने के बाद भी कुछ न कुछ सरकार वसूल ही लेती है, ये तो सीधी कमाई से चला जाता है. कुछ ख़रीदो उस पर टैक्स, बात बात पर टैक्स लेकर सरकार उसे ख़र्च करती भी है तो कुछ किताबी कीड़ों के ऊपर.
जनता का पैसा जनता के काम ही आने चाहिए. इन्हें जनता के प्रतिनिधि जी की गाड़ी-पेट्रोल, नौकर-चाकर, खाना पीना, विदेश भ्रमण आदि के ऊपर ख़र्च किया जाना चाहिए. वो जनता की सेवा कर रहे हैं, उनकी सेवा-सत्कार में कोई कमी नहीं पड़नी चाहिए. मालिक(जनता) वही अच्छे कहे गए हैं, जिनके नौकर(सांसद/विधायक) उनसे खुश रहें. ये अलग बात है कि देश के वर्तमान 88% सांसद(नौकर) करोड़पति हैं और उनके 22% मालिक(जनता) गरीबी रेखा के नीचे हैं.
इसके बाद कुछ पैसे बच जाएं तो उनसे इन प्रतिनिधियों के पुरखों की विशालकाय मूर्ती बना दी जाए. जिसे हम सिर उठा कर देख सकें और हमारा सीना गर्व और तनाव से फूल जाए. JNU का सालान बजट लगभग 200 करोड़ का है मेरा सुझाव है कि अगर विश्वविद्यालय को बंद कर के वहां उसी पैसों से 20 30 मीटर ऊंची किसी महापुरुष की प्रतिमा खड़ी कर दी जाए तो कितना बढ़िया हो.
ग़लती से कुछ ज़्यादा ही टैक्स वसूल लिया गया हो और कुछ करने को न बचा हो तब जनता के टैक्स के पैसों से जनता को ये बताया जाए कि सरकार जनता के टैक्स के पैसों का कहां ख़र्च कर रही है. अख़बार में फ्रंट पर फुल पेज विज्ञापन छपे कि आज फलाने मंत्री ने ‘महत्वपूर्ण’ योजना का उद्घाटन किया हालांकि दूसरे पेज की प्रमुख ख़बर भी यही होती है कि फलाने मंत्री ने एक ‘महत्वपूर्ण’ योजना का उद्घाटन किया. ख़बर और विज्ञापन में अंतर कर पाना कई बार मुश्किल होता है लेकिन उन पैसों से JNU जैसा विश्वदिद्यालय खोलने से बेहतर है न कि किसी मंत्री की फ़ोटो छप जाए.