दिल्ली मेट्रो की यात्रा बड़ी शांत और सुकून भरी होती है. मस्त AC चलता है. खोपड़ी पर ठंडी-ठंडी हवा लगती है, तो लंबे सफ़र वाले यात्री घोड़े के माफ़िक खड़े-खड़े ही सो जाते हैं. जागने वाले कान में हेडफ़ोन फंसाये सावधान इंडिया देख रहे होते हैं. आरक्षित सीट से भी किसी को उठाना हो तो मुंह खोलने की ज़रूरत नहीं पड़ती, आंखों ही आंखों में इशारा हो जाता है. लेकिन एक बार ऐसा नहीं हुआ.  

Aaj Tak

दिल्ली मेट्रो भारतीय रेलवे तो है नहीं कि आरक्षित सीटें नाम के हिसाब से अलॉट की गई हों. मेट्रो के सामान्य डब्बों में तीन तरह की सीटें रिज़र्व होती हैं. महिलाओं के लिए, विकलांगों के लिए और बुज़ुर्गों के लिए. जिस किस्से की मैं बात करने जा रहा हूं, वो तीसरे किस्म की आरक्षित सीट से जुड़ा था. 

 एक दादा जी टाइप इंसान एम्स से मेट्रो पर चढ़े, चुस्ती से भीड़ को काटते हुए वो बुज़ुर्गों के लिए आरक्षित सीट के पास पहुंचे और वहां पहले से बैठे व्यक्ति को इशारों में ही अधिकारपूर्वक उठने को कहा, अगला नहीं उठा.  

BorderLine

बता दूं कि एक साथ दो सीटें आरक्षित होती हैं. वहां एक सीट पर एक बुज़ुर्ग महिला बैठी थीं. तो मेट्रो में नए नए चढ़े दद्दू उन्हें उठाने से रहे और दूसरी सीट पर भी एक दद्दू ही बैठे थे. तो भई सीट छोड़ने का इशारा उन्हीं को हुआ था. मैं अपने फ़ोन में सावधान इंडि… सॉरी Netflix देख रहा था, फ़ोन बंद कर मैंने जेब में डाल लिया. कुछ इंटरेस्टिंग होने वाला था. 

“दिख नहीं रहा आपको, एक बूढ़ा व्यक्ति आपके सामने खड़ा है और आप बेशर्मी से रिज़र्व सीट पर बैठ हुए हैं.” 

“अजी आपको नहीं दिख रहा, मैं भी बूढ़ा हूं.” 

“मैं ज़्यादा बूढ़ा हूं, रिटायर्ड हूं.” 

“मैं भी रिटायर्ड हूं.” 

 मेरे अलावा आस-पास खड़े लोगों के कानों तक भी इनकी बातें जा रही थीं.वो सब भी अब उनकी ओर देखना शुरू कर चुके थे. मैं मन ही मन सोच रहा था कि पहला राउंड तो टाई हो गया, दोनों बुड्ढे रिटायर्ड निकले. देखते हैं अगले राउंड में क्या होता है… 

 “रिटायर्ड हैं! ऐसे-कैसे रिटायर्ड हैं, बाल तो अभी भी काले हैं आपके.” 

“मैं बालों को रंगता हूं, महीने दो महीने आराम से निकल जाते हैं.” 

“अच्छा! कौनसा हेयर डाइ?” 

कहीं दूर से आवाज़ आई, ‘दद्दू फ़ोकस कीजिए कुर्सी की लड़ाई हो रही है’ 

 “हां, हां.. बाल रंगे हुए हैं तो क्या हुआ, मैं आपसे ज़्यादा बूढ़ा हूं.” 

“ऐसे कैसे मान लूं कि आप ज़्यादा बूढ़े हैं, बूढ़े हैं तो दिखाइए कोई ID, जो ज़्यादा बूढ़ा हुआ सीट उसकी.” 

“आपको ID क्यों दिखाऊं, आप टिकट कलेक्टर हो रहे हैं? आप दिखाइए ID.” 

 दोनों पक्ष ID दिखाने से इसलिए कतरा रहे थे क्योंकि उन्हें डर था कि अगला उनसे ज़्यादा बूढ़ा निकलेगा और वो इस कुर्सी की लड़ाई को हार जाएगा. मैच तीसरे राउंड की ओर बढ़ चुका था. 

“मैंने 40 सालों तक देश की सेवा की, कई जंगें लड़ीं, सीमा पर खड़ा रहा और अब रिटायर्मेंट के बाद भी मुझे खड़ा रहना पड़ रहा है.” 

 दद्दू ने मिलिट्री कार्ड चल दिया था, जनता की भावना उनकी ओर जुड़ गई थी. आजकल देश में इस कार्ड को कोई तोड़ नहीं है. सब बैठे हुए बुज़ुर्ग व्यक्ति को घूर रहे थे. वो देशद्रोही साबित ही होने वाले ही थे कि उन्होंने भी अपना तुरुप का इक्का चल दिया. 

 “उम्रभर जिन बच्चों के लिए काम करता रहा, रिटायर होते ही उन्होंने घर से बाहर खड़ा कर दिया. अब अंजानों से क्या ही उम्मीद रखूं, वो भी मेरी सीट से उठा देंगे.” 

 गुड वन अंकल! तीसरे राउंड में कांटे की टक्कर हुई. हाथ से जाती सीट को उन्होंने लपक पर पकड़ लिया. चौथे राउंड की घंटी बज चुकी थी. 

 “एम्स से चढ़ा हूं मैं, सुबह से अस्पताल के चक्कर काट रहा हूं. बूढ़े आदमी की कोई सुनने वाला नहीं है इस दुनिया में.” 

 “ठीक कहा! मैं भी सचिवालय से आ रहा हूं… अगर आप एक बार सरकारी ऑफ़िस के चक्कर में फंस गए फिर पूरी उम्र बाबुओं के दरवाज़े के बाहर ही कट जाती है.” 

 दोनों टक्कर के खिलाड़ी थे. एक हार नहीं मान रहा था और दूसरा अपनी सीट छोड़ने की तैयार नहीं था. थोड़ी देर में बात करने का लहज़ा आप से तू-तड़ाक तक पहुंच गया. जब कॉलर पकड़ने की बारी आई तो मेरा स्टॉप आ गया, आखिर में कुर्सी किसकी हुई ये नतीजा जाने बिना ही मुझे मेट्रो छोड़ना पड़ा.