अब ये देश गांधी के विचार डिज़र्व नहीं करता, अहिंसा का दिखावा ही किया जा सकता है, अब हालात उन्नीस-बीस होते ही मुक्के चल जाते हैं. कल गांधी जयंती के मौक़े पर ट्विटर पर #गोडसे_अमर_रहें ट्रेंड कर रहा था, जो कि सही भी है! अहिंसा का ढोंग क्यों करना! हमे हत्यारे पसंद हैं और न जाने कितने सालों से हम ये बात विधायक-सांसद को वोट दे कर साबित करते आ रहे हैं. 

#गोडसे_अमर_रहें लिखने वाले लोग सच्चे हैं. वो किसी प्रकार का ढोंग नहीं कर रहे. किसी मौके पर अगर आपकी उनसे अनबन हुई, किसी मुद्दे को लेकर वैचारिक मतभेद हुआ तो इस बात पर आप निश्चिंत रहें कि वो आपको निहत्था देखते ही गोली मार देंगे. उन्हें दुर्बल या कायर कहना ग़लत होगा, इसे प्रैक्टिकल होना कहा जाना चाहिए! 

ये बीतें दिनों की बात हो गई कि लोग एक गाल पर थप्पड़ खाने के बाद दूसरा गाल आगे बढ़ाने की बात करते थे, अब बस या मैट्रो में कोई ग़लती से छू भी जाए तो एक दूसरे की मां-बहन को दुआएं देने लगते हैं. आज़ादी के बाद से सिर्फ़ गांधी की लाठी ही लोगों के काम आ रही है और वो पहले से ज़्यादा मज़बूत हो चुकी है. 70 सालों में हमने लाठी में जम कर तेल पिलाया और बरसाया है. बदलते वक़्त के साथ कहावत ये हो चली है कि जिसकी लाठी, उसका गांधी(नोट वाला).

गोडसे की बातें कर के आप सत्ता तक पहुंच सकते हैं, हालांकि पुरानी रवायत की वजह से कुर्सी पर बैठने के बाद गांधी की बातें करनी पड़ती है लेकिन ये भी कुछ सालों की ही बातें हैं. दो-तीन चुनाव के बाद अगर कोई जन प्रतिनिधि अपनी रैली में गोडसे अमर रहे के नारे लगवा दे तो इसमें किसी को हैरत नहीं होगी. प्रौपेगेंडा की मेहरबानी कहिए कि ढंग से गांधी और गोडसे को जाने बिना बच्चे गांधी से नफ़रत करने लगे हैं और उन्हें गोडसे पर फ़क्र महसूस होता है.